प्रकृति के रूप
बुनती है संध्या
ख्वाबों के जाले
परिंदों के भाग्य मे
नेह के दाने।
आसमान के सीने पर
तारों का स्पंदन
निशा के ललाट पर
क्षीर समंदर।
हर्ष की सुमधुर बेला
प्रकृति की शोभा
चंद्रिका मुखरित
समाधिस्थ धरा।
आलोकिक विभा
शशधर का वैभव
मंदाकिनी आज
उतरी धरा पर ।
पवन की पालकी
नीरव हुवा घायल
छनकी होले होले
किरणों की पायल।
कुसुम कोठारी ।
बुनती है संध्या
ख्वाबों के जाले
परिंदों के भाग्य मे
नेह के दाने।
आसमान के सीने पर
तारों का स्पंदन
निशा के ललाट पर
क्षीर समंदर।
हर्ष की सुमधुर बेला
प्रकृति की शोभा
चंद्रिका मुखरित
समाधिस्थ धरा।
आलोकिक विभा
शशधर का वैभव
मंदाकिनी आज
उतरी धरा पर ।
पवन की पालकी
नीरव हुवा घायल
छनकी होले होले
किरणों की पायल।
कुसुम कोठारी ।
बहुत खुबसूरती से बिखरी है प्रकृति की छटा..
ReplyDeleteपम्मी जी ढेर सा आभार,
Deleteआपकी प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया लेखन को सार्थकता देती है।
आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया के लिये बहुत सा आभार ।
ReplyDeleteवाह्ह..दी..बेहद खूबसूरत शब्द.जाल और भाव तो अप्रतिम..👌👌
ReplyDeleteस्नेह आभार श्वेता ।
Deleteरचना सार्थक हुई आपके स्नेह लिप्त शब्दों से ।
सुप्रभात, शुभ दिवस।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteसादर आभार।
Deleteसुकोमल शब्दावली में प्रकृति के मोहक रूपों को सजाता मनभावन लेखन प्रिय कुसुम बहन !!!!
ReplyDeleteसादर आभार बहन ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार रेनू बहन आपकी प्रतिक्रिया का सदैव इंतजार रहति है।
ReplyDeleteसस्नेह ।