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Thursday, 21 June 2018

प्रकृति के रूप

प्रकृति के रूप

बुनती है संध्या
ख्वाबों के जाले
परिंदों के भाग्य मे
नेह के दाने।

आसमान के सीने पर
तारों का स्पंदन
निशा के ललाट पर
क्षीर समंदर।

हर्ष की सुमधुर बेला
प्रकृति की शोभा
चंद्रिका मुखरित
समाधिस्थ धरा।

आलोकिक विभा
शशधर का वैभव
मंदाकिनी आज
उतरी धरा पर ।

पवन की पालकी
नीरव हुवा घायल
छनकी होले होले
किरणों की पायल।

  कुसुम कोठारी ।

10 comments:

  1. बहुत खुबसूरती से बिखरी है प्रकृति की छटा..

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    1. पम्मी जी ढेर सा आभार,
      आपकी प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया लेखन को सार्थकता देती है।

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  2. आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया के लिये बहुत सा आभार ।

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  3. वाह्ह..दी..बेहद खूबसूरत शब्द.जाल और भाव तो अप्रतिम..👌👌

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    1. स्नेह आभार श्वेता ।
      रचना सार्थक हुई आपके स्नेह लिप्त शब्दों से ।
      सुप्रभात, शुभ दिवस।

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  4. सुकोमल शब्दावली में प्रकृति के मोहक रूपों को सजाता मनभावन लेखन प्रिय कुसुम बहन !!!!

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  5. सादर आभार बहन ।

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  6. बहुत बहुत आभार रेनू बहन आपकी प्रतिक्रिया का सदैव इंतजार रहति है।
    सस्नेह ।

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