मै निकली सफर पर अकेली
मंजिल क्या होनी ये पता लेकर
पर चल पडी राह बदल
न जाने किधर
भूल गयी कहाँ से आई
और कहाँ है जाना
किस भूल भुलैया मे भटकी
कभी चली फिर अटकी
साथ मे थी फलों की गठरी
कुछ मीठे कुछ खट्टे,
कुछ नमकीन कसैले
खाना होगा एक एक फल
मीठे खाये खुश हो हो कर
कुछ रोकर
कुछ निगले दवा समान
कुछ बांटने चाहे
पर किसी को ना दे पाये
अपने हिस्से के थे सब
किसको हिस्से देते
अब कुछ अच्छे मीठे
फलों के पेड लगादूं
तो आगे झोली मे
मधुर मधुर ही ले के जाऊं
अनित्य मे से शाश्वत समेटूं
फिर एक यात्रा पर चल दूं
पाना है परम गति
तो निर्मल, निश्छल,
विमल, वीतरागी बन
मोक्ष मार्ग की राह थाम लूं
मै आत्मा हूं
काम, क्रोध मोह-माया,
राग, द्वेष मे लिपटी
भव बंधन मे जकडी
तोड के सब जंजीरे
स्वयं स्वरूप पाना है
बार बार की संसार
परिक्रमा से
मुक्त हो जाना है।
कुसुम कोठारी।
फल=पूर्व कृत कर्म।
बहुत सुंदर रचना.... बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteस्नेह आभार सखी ।
Deleteवाहःह बहुत खूब
ReplyDeleteजी शुक्रिया
Deleteवाह.
ReplyDeleteसुंदर जीवन दर्शन आदरणीया कुसुम जी.
सादर आभार सुधा जी।
ReplyDeleteसही कहा आपने आध्यात्मिकता का बोध है रचना मे।
लाजवाब मीता
ReplyDeleteआभार मीता।
Deleteसुन्दर आपबीती इस जीव परिक्रमा की! बधाई और आभार!!!
ReplyDeleteसादर आभार विवेचनात्मक प्रतिक्रिया का
Deleteबहुत खूब ...., जीवन चक्र का सुन्दर विवेचन .
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १२ मार्च २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
राग द्वेष में लिपटी आत्मा को सांसारिक परिक्रमा से बाहर जाना है...मुक्त होना है...
ReplyDeleteवाह!!!
बहुत सुन्दर....
वाह!कुसुम जी ,आपनें तो इतने कम शब्दों मेंं पूरा जीवन दर्शन ही समझा दिया ।
ReplyDeleteप्रिय कुसुम जी -- सुदर अद्भुत जीवन दर्शन !!!! बेहतरीन सृजन परिक्रमा के बहाने से | सस्नेह --
ReplyDeleteसभी सखियों से स्नेह आभार।
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