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Sunday, 18 March 2018

उम्मीद पर जीने से हासिल कुछ......

माना उम्मीद पर जीने से हासिल कुछ नही लेकिन
पर ये भी क्या,कि दिल को जीने का सहारा भी न दें।

उजडने को उजडती है बसी  बसाई बस्तियां
पर ये भी क्या के फकत एक आसियां भी ना दे।

खिल के मिलना ही है धूल मे जानिब नक्बत
पर ये क्या के खिलने को गुलिस्तां भी न दे।

माना डूबी है कस्तियां किनारों पे मगर
पर यूं भी क्या किसी को अश़्फाक भी न दे।

बरसता रहा आब ए चश्म रात भर बेजार
पर ये क्या उक़ूबत तिश्नगी मे पानी भी न दे।

मिलने को तो मिलती रहे दुआ ए हयात रौशन
पर ये क्या के अजुमन को आब दारी भी न दे ।

                 कुसुम कोठारी।

नक्बत=दुर्भाग्य,अश़्फाक =सहारा आब ए चश्म = आंसू,उक़ूबत =सजा,तिश्नगी =प्यास

10 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना
    सत्य का हूबहू चित्रण किया आपने

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    1. बहुत बहुत आभार सखी।
      जीने को कुछ आशा तो होनी चाहिए

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  2. वाह ... नए अन्दाज़ के शेर ...
    हर शेर कुछ नया बयान लिए ... लाजवाब ...

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    1. सादर आभार आपकी सक्रिय प्रतिक्रिया लेखन को आयाम देती सी सदा अनुग्रह बनाये रखें।

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  3. बहुत खूब मीता लाजवाब 👏👏👏👏👏
    उम्मीद पे दुनिया कायम है
    ना उम्मीद कहाँ जीते है
    मरने से पहले मर जाते
    पस्त हौसले कब उड़ते है ।

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  4. उम्मीद पे दुनियां कायम है
    ना उम्मीद कहाँ जीते है
    मरते है मरने से पहले
    पस्त हौसले कब उड़ान भरते है ।

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  5. सस्नेह आभार मीता।
    रचना को समर्थन करती सुंदर प्रतिक्रिया।
    शुभ दिवस ।

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