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Monday, 19 March 2018

मै तुम्हारा एकलव्य

एकलव्य की मनो व्यथा >

तुम मेर द्रोणाचार्य थे
मै तुम्हारा एकलव्य ,
मै तो मौन गुप्त साधना मे था ,
तुम्हें कुछ पता भी न था
फिर इतनी बङी दक्षिणा
क्यों मांग बैठे ,
सिर्फ अर्जुन का प्यार और
 अपने वचन की चिंता थी ?
या अभिमान था तुम्हारा,
सोचा भी नही कि सर्वस्व
 दे के जी भी पाऊंगा ?
इससे अच्छा प्राण
मांगे होते सहर्ष दे देता
और जीवित भी रहता
फिर मांगो गुरुदक्षिणा
मै दूंगा पर ,सोच लेना
अपनी मर्यादा फिर न
भुलाना वर्ना धरा डोल जायेगी ,
मै फिर भेट करूंगा अंगूठाअपना,
और कह दूंगा सारे जग को
तुम मेरे आचार्य नही
सिर्फ द्रोण हो सिर्फ एक दर्प,
 पर मै आज भी हूं
तुम्हारा एकलव्य ।
             कुसुम कोठारी ।

5 comments:

  1. अनेक ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं काल खंड में जो सोचने पर मजबूर करते हैं ...
    इन प्रसंगों से सीखो या उस परिपाटी के साथ चलो ...?
    साथ तो चल ही रहा है समाज ...
    गहरी रचना ...

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    1. प्रासंगिक प्रतिक्रिया सादर आभार।

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  2. बहुत सुंदर रचना

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