कदम बढते गये बन
राह के साझेदार
मंजिल का कोई
ठिकाना ना पड़ाव,
उलझती सुलझती रही
मन लताऐं बहकी सी
तन्हाई मे लिपटी रही
सोचों के विराट वृक्षों से
संगिनी सी,
आशा निराशा मे
उगता ड़ूबता
भावों का सूरज
हताशा और उल्लास के
हिन्डोले मे झूलता मन
कभी पूनम का चाॅद
कभी गहरी काली रात
कुछ सौगातें
कुछ हाथों से फिसलता आज
नर्गिस सा, बेनूरी पे रोता
खुशबू पे इतराता जीवन,
कभी भरी महफिल
कभी बेनाम तन्हाई।
कुसुम कोठारी।
राह के साझेदार
मंजिल का कोई
ठिकाना ना पड़ाव,
उलझती सुलझती रही
मन लताऐं बहकी सी
तन्हाई मे लिपटी रही
सोचों के विराट वृक्षों से
संगिनी सी,
आशा निराशा मे
उगता ड़ूबता
भावों का सूरज
हताशा और उल्लास के
हिन्डोले मे झूलता मन
कभी पूनम का चाॅद
कभी गहरी काली रात
कुछ सौगातें
कुछ हाथों से फिसलता आज
नर्गिस सा, बेनूरी पे रोता
खुशबू पे इतराता जीवन,
कभी भरी महफिल
कभी बेनाम तन्हाई।
कुसुम कोठारी।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २ अप्रैल २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
स्नेह आभार जी ।
Deleteवाह दीदी जी आपकी इस तनहाई ने बड़ी खूबसूरती से ज़िंदगी के दोनों पहलू को दर्शाया
ReplyDeleteलाजवाब रचना
वाह!!कुसुम जी ,बहुत खूब ।
ReplyDeleteशुभा जी तहेदिल से शुक्रिया।
Deleteउगता ड़ूबता
ReplyDeleteभावों का सूरज
हताशा और उल्लास के
हिन्डोले मे झूलता मन
वाह!!!
लाजवाब अभिव्यक्ति....
सुधा जी बालाग पर प्रतिक्रिया के साथ आप को देख बहुत खुशी हुई। ढेर सारा आभार।
Deleteबहुत सुन्दर!!!!कुसुम जी,
ReplyDeleteसादर ।
सादर आभार पल्लवी जी।
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