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Friday, 30 March 2018

तन्हाई संगिनी

कदम बढते गये बन
राह के साझेदार
मंजिल का कोई
ठिकाना ना पड़ाव,
उलझती सुलझती रही
मन लताऐं बहकी सी
तन्हाई मे लिपटी रही
सोचों के विराट वृक्षों से
संगिनी सी,
आशा निराशा मे
उगता ड़ूबता
भावों का सूरज
हताशा और उल्लास के
हिन्डोले मे झूलता मन
कभी पूनम का चाॅद
कभी गहरी काली रात
कुछ सौगातें
कुछ हाथों से फिसलता आज
नर्गिस सा, बेनूरी पे रोता
खुशबू पे इतराता जीवन,
कभी भरी महफिल
कभी बेनाम तन्हाई।
    कुसुम कोठारी।

9 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २ अप्रैल २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  2. वाह दीदी जी आपकी इस तनहाई ने बड़ी खूबसूरती से ज़िंदगी के दोनों पहलू को दर्शाया
    लाजवाब रचना

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  3. वाह!!कुसुम जी ,बहुत खूब ।

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    1. शुभा जी तहेदिल से शुक्रिया।

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  4. उगता ड़ूबता
    भावों का सूरज
    हताशा और उल्लास के
    हिन्डोले मे झूलता मन
    वाह!!!
    लाजवाब अभिव्यक्ति....

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    1. सुधा जी बालाग पर प्रतिक्रिया के साथ आप को देख बहुत खुशी हुई। ढेर सारा आभार।

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  5. बहुत सुन्दर!!!!कुसुम जी,
    सादर ।

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    1. सादर आभार पल्लवी जी।

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