कब आवोगे हे मुरलीधर
तेरी धरा वैधव्य भोग रही
श्रृंगार विहीन भई सुकुमारी
कितने वो दर्द झेल रही
कभी तुम एक द्रोपदी की रक्षा हेतू
दौडे दौडे आये थे
आज संतप्त समाज सारा
चहुँ और हाहाकार है
आज नारी की लाजदेखो
लुटती भरे बाजार है
तुम न आवो मधुसूदन
तुम्हें घनेरे काज है
कम से कम
अपना कोई दूत पठाओ
इस जलती अवनी को
कुछ ठण्डी बौछार भिजाओ।
तेरी धरा वैधव्य भोग रही
श्रृंगार विहीन भई सुकुमारी
कितने वो दर्द झेल रही
कभी तुम एक द्रोपदी की रक्षा हेतू
दौडे दौडे आये थे
आज संतप्त समाज सारा
चहुँ और हाहाकार है
आज नारी की लाजदेखो
लुटती भरे बाजार है
तुम न आवो मधुसूदन
तुम्हें घनेरे काज है
कम से कम
अपना कोई दूत पठाओ
इस जलती अवनी को
कुछ ठण्डी बौछार भिजाओ।
लाजवाब रचना.....
ReplyDeleteआज नारी की लाजदेखो
लुटती भरे बाजार है..?
वाह!!!!
बहुत ही सुंदर और सार्थक रचना
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत और सार्थक रचना कुसुम जी
ReplyDeleteसमसामयिक के परिपेक्ष्य को ध्यान में रख मुरलीधर से सटीक याचना।
ReplyDeleteवाह उम्मदा सृजन
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