शाम का ढलता सूरज
उदास किरणे थक कर
पसरती सूनी मूंडेर पर
थमती हलचल धीरे धीरे
नींद केआगोश मे सिमटती
वो सुनहरी चंचल रश्मियां
निस्तेज निस्तब्ध निराकार
सुरमई संध्या का आंचल
तन पर डाले मुह छुपाती
क्षितिज के उस पार अंतर्धान
समय का निर्बाध चलता चक्र
कभी हंसता कभी उदास
ये प्रकृति का दृश्य है या फिर
स्वयं के मन का परिदृश्य
वो ही प्रतिध्वनित करता जो
निज की मनोदशा स्वरूप है
भुवन वही परिलक्षित करता
जो हम स्वयं मन के आगंन मे
सजाते है खुशी या अवसाद
शाम का ढलता सूरज क्या
सचमुच उदास....... ?
कुसुम कोठारी ।
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Friday, 2 March 2018
उदास
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शाम का ढलता सूरज
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वाह !!! बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteवाह सत्य मीता
ReplyDeleteमन ही परिलक्षित होता
हर मौसम हर भाव
खुशी उदासी तो बस हिय मैं
मन का बहता भाव
आभार मीता
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