Thursday, 8 March 2018

परिक्रमा।










मै निकली सफर पर अकेली
मंजिल क्या होनी ये पता लेकर
पर चल पडी राह बदल
न जाने किधर
भूल गयी कहाँ से आई
और कहाँ है जाना
किस भूल भुलैया मे भटकी
कभी चली फिर अटकी
साथ मे थी फलों की गठरी
कुछ मीठे कुछ खट्टे,
कुछ नमकीन कसैले
खाना होगा एक एक फल
मीठे खाये खुश हो हो कर
कुछ रोकर
कुछ निगले दवा समान
कुछ बांटने चाहे
पर किसी को ना दे पाये
अपने हिस्से के थे सब 
किसको हिस्से देते
अब कुछ अच्छे मीठे
फलों  के पेड लगादूं
तो आगे झोली मे
मधुर मधुर ही ले के जाऊं
अनित्य मे से शाश्वत समेटूं
फिर एक यात्रा पर चल दूं
पाना है परम गति
तो निर्मल, निश्छल,
विमल, वीतरागी बन
मोक्ष मार्ग की राह थाम लूं
मै आत्मा हूं
काम, क्रोध मोह-माया,
राग, द्वेष मे लिपटी
भव बंधन मे जकडी
तोड के सब जंजीरे
स्वयं स्वरूप पाना है
बार बार की संसार
 परिक्रमा से
मुक्त हो जाना है।
    कुसुम कोठारी।

फल=पूर्व कृत कर्म।

16 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना.... बहुत बहुत बधाई

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  2. वाहःह बहुत खूब

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  3. वाह.
    सुंदर जीवन दर्शन आदरणीया कुसुम जी.

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  4. सादर आभार सुधा जी।
    सही कहा आपने आध्यात्मिकता का बोध है रचना मे।

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  5. सुन्दर आपबीती इस जीव परिक्रमा की! बधाई और आभार!!!

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    1. सादर आभार विवेचनात्मक प्रतिक्रिया का

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  6. बहुत खूब ...., जीवन चक्र का सुन्दर विवेचन .

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  7. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १२ मार्च २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  8. राग द्वेष में लिपटी आत्मा को सांसारिक परिक्रमा से बाहर जाना है...मुक्त होना है...
    वाह!!!
    बहुत सुन्दर....

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  9. वाह!कुसुम जी ,आपनें तो इतने कम शब्दों मेंं पूरा जीवन दर्शन ही समझा दिया ।

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  10. प्रिय कुसुम जी -- सुदर अद्भुत जीवन दर्शन !!!! बेहतरीन सृजन परिक्रमा के बहाने से | सस्नेह --

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  11. सभी सखियों से स्नेह आभार।

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