पृथ्वी
क्षिति धरा अडिग अचल
जब भी हुई चलायमान सचल
लिया विध्वंस रूप विनाश
काश समझता ये आकाश ।
अनंत झुकता चला आता है
वसुधा से लिये मिलन का राग
पर वो नही उठना चाहती
ये कोई अभिमान न विराग।
अचलता धैर्य है वसुंधरा का
जो सदा जगत का आधार है
उर्वी को पावनता से स्पर्श दे
गगन में अदम्य लालसा है ।
अधोमुखी हो झुकता पुष्कर
दृष्टि सीमा तक जा रुकता नभ
धुमिल उच्छवास उठ सारंग तक
महि का हृदय आडोलित हतप्रभः।
यही पावन मिलन एक रेख सा
अंकित सुनहरी लाल मनभावन
बन क्षितिज लुभाता सदा हमें
कितना मनोरम कितना पावन।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
क्षिति धरा अडिग अचल
जब भी हुई चलायमान सचल
लिया विध्वंस रूप विनाश
काश समझता ये आकाश ।
अनंत झुकता चला आता है
वसुधा से लिये मिलन का राग
पर वो नही उठना चाहती
ये कोई अभिमान न विराग।
अचलता धैर्य है वसुंधरा का
जो सदा जगत का आधार है
उर्वी को पावनता से स्पर्श दे
गगन में अदम्य लालसा है ।
अधोमुखी हो झुकता पुष्कर
दृष्टि सीमा तक जा रुकता नभ
धुमिल उच्छवास उठ सारंग तक
महि का हृदय आडोलित हतप्रभः।
यही पावन मिलन एक रेख सा
अंकित सुनहरी लाल मनभावन
बन क्षितिज लुभाता सदा हमें
कितना मनोरम कितना पावन।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बहुत सुंदर रचना है आपकी
ReplyDeleteहाल ही में मैंने ब्लॉगर ज्वाइन किया है जिसमें मैंने कुछ कविताएं लिखी है आपसे निवेदन है कि आप उन्हें पढ़े और मुझे सही दिशा निर्देश दे
धन्यवाद
https://designerdeekeshsahu.blogspot.com/?m=1
सशक्त रचना।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteमनभावन रचना|
ReplyDeleteयही पावन मिलन एक रेख सा
ReplyDeleteअंकित सुनहरी लाल मनभावन
बन क्षितिज लुभाता सदा हमें
कितना मनोरम कितना पावन।
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति,सादर नमन कुसुम जी
अधोमुखी हो झुकता पुष्कर
ReplyDeleteदृष्टि सीमा तक जा रुकता नभ
धुमिल उच्छवास उठ सारंग तक
महि का हृदय आडोलित हतप्रभः
अद्भुत परिकल्पना....
बहुत ही लाजवाब
वाह!!!