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Friday, 17 July 2020

पृथ्वी

पृथ्वी

क्षिति धरा  अडिग अचल
जब भी हुई चलायमान सचल
लिया विध्वंस  रूप विनाश
काश समझता ये आकाश ।

अनंत झुकता चला आता है
वसुधा से लिये मिलन का राग
पर वो नही  उठना चाहती
ये कोई अभिमान न विराग।

अचलता धैर्य है वसुंधरा का
जो सदा जगत का आधार है
उर्वी को पावनता  से स्पर्श दे
गगन में अदम्य  लालसा है ।

अधोमुखी हो झुकता पुष्कर
दृष्टि सीमा तक जा रुकता नभ
धुमिल उच्छवास उठ सारंग तक
महि का हृदय आडोलित हतप्रभः।

यही पावन मिलन एक रेख सा
अंकित सुनहरी लाल मनभावन
बन क्षितिज लुभाता सदा हमें
कितना मनोरम कितना पावन।

          कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

6 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना है आपकी
    हाल ही में मैंने ब्लॉगर ज्वाइन किया है जिसमें मैंने कुछ कविताएं लिखी है आपसे निवेदन है कि आप उन्हें पढ़े और मुझे सही दिशा निर्देश दे
    धन्यवाद
    https://designerdeekeshsahu.blogspot.com/?m=1

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  2. मनभावन रचना|

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  3. यही पावन मिलन एक रेख सा
    अंकित सुनहरी लाल मनभावन
    बन क्षितिज लुभाता सदा हमें
    कितना मनोरम कितना पावन।
    बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति,सादर नमन कुसुम जी

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  4. अधोमुखी हो झुकता पुष्कर
    दृष्टि सीमा तक जा रुकता नभ
    धुमिल उच्छवास उठ सारंग तक
    महि का हृदय आडोलित हतप्रभः
    अद्भुत परिकल्पना....
    बहुत ही लाजवाब
    वाह!!!

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