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Saturday, 11 July 2020

कैसा अभिशाप

कैसा अभिशाप

कैसा अभिशाप था
अहिल्या भरभरा के गिर पड़ी
सुन वचन कठोर ऋषि के
दसो दिशाओं का हाहाकार
मन में बसा
सागर की उत्तंग लहरों सा ज्वार
उठ-उठ फिर विलीन होता गया‌
अश्रु  चुकने को  है  पर 
संतप्त हृदय का कोई आलम्बन नही।।

आह री वेदना बस अब जब
चोटी पर जा बैठी हो तो
ढलान की तरफ अधोमुक्त होना ही होगा
विश्रांति अब बस विश्रांति
यही  वेदना का अंतिम पड़ाव ‌
पाहन बन अडोल अविचल
बाट जोहती रही
श्री राम की पद धुलि पाने को
न जाने कितने लम्बे काल तक
अपना अभिशाप लिये।।

    कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

8 comments:

  1. वाह!कुसुम जी ,बहुत सुंदर ।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका शुभा जी।

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  2. अहिल्या के जीवन को इंगित करती मार्मिक अभिव्यक्ति आदरणीय दीदी.
    सादर

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    1. बहुत सा सरनेम आभार प्रिय बहना ।

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  3. सागर की उत्तंग लहरों सा ज्वार
    उठ-उठ फिर विलीन होता गया‌
    अश्रु चुकने को है पर
    संतप्त हृदय का कोई आलम्बन नही।।
    सच में ऐसा घोर अभिशाप!!!
    माता अहिल्या के मन की बेदना बेवशी का हृदयस्पर्शी चित्रण
    वाह!!!

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    1. बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी , उत्साह वर्धन हुआ आपकी टिप्पणी से।
      सस्नेह।

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  4. जी आभार आपका आदरणीय।

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  5. बहुत बहुत आभार आपका।
    पाँच लिंक में रचना को शामिल करने के लिए ।
    सादर।

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