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Thursday, 23 July 2020

पावस की आहट

पावस की आहट

दस्तक दे रहा दहलीज पर कोई
चलूँ उठ के देखूँ कौन है
कोई नही दरवाजे पर
फिर ये धीरे धीरे मधुर थाप कैसी?
चहुँ ओर एक भीना सौरभ
दरख्त भी कुछ मदमाये से
पत्तों की सरसराहट
एक धीमा राग गुनगुना रही
कैसी स्वर लहरी फैली।
फूल कुछ और खिले-खिले
कलियों की रंगत बदली सी।
माटी महकने लगी है
घटाऐं काली घनघोर ।
मृग शावक सा कुलाँचे भरता मयंक
छुप जाता जा कर उन घटाओं के पीछे
फिर अपना कमनीय मुख दिखाता
फिर छुप जाता
कैसा मोहक खेल है।
तारों ने अपना अस्तित्व
जाने कहां समेट रखा है
सारे मौसम पर मदहोशी कैसी
हवाओं में किसकी आहट।
ये धरा का अनुराग है
आज उसका मनमीत
बादलों के अश्व पर सवार है
ये पावस की पहली आहट है
जो दुआ बन दहलीज पर
बैठी दस्तक दे रही है।
चलूँ किवाडी खोल दूँ
और बदलते मौसम के
अनुराग को समेट लूँ
अपने अंतर स्थल तक।

         कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

5 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 24 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (२६-०७-२०२०) को शब्द-सृजन-३१ 'पावस ऋतु' (चर्चा अंक -३७७४) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  3. बेहतरीन रचना सखी

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