लहकी नागफणी
महक उठे है मधुबन जैसे
पात हृदय के जो लूखे।
अक्षि पार्श्व दर्शन जो होते
पतझड़ खिल जाते रूखे।
व्याकुल होकर मोर नाचता
आस अटकी नभ के छोर।
आके नेह घटाएं बरसो
हैं धरा का निर्जल पोर।
अकुलाहट पर पौध रोप दे
दृग रहे दरस के भूखे।।
कैसी तृप्ती है औझड़ सी
तृषा बिना ऋतु के झरती ।
अनदेखी सी चाह हृदय में
बंद कपाट उर्मि भरती।
लहकी नागफणी मरुधर में
लूं तप्त फिर भी न सूखे।।
पंथ जोहते निनिर्मेष से
कोई टोह नहीं आती।
चांद रात में दुखित चकोरी
दग्ध कौमुदी तड़पाती।
कब तक होगी शेष प्रतीक्षा
पीर झेलें बन बिजूखे।।
कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"
महक उठे है मधुबन जैसे
पात हृदय के जो लूखे।
अक्षि पार्श्व दर्शन जो होते
पतझड़ खिल जाते रूखे।
व्याकुल होकर मोर नाचता
आस अटकी नभ के छोर।
आके नेह घटाएं बरसो
हैं धरा का निर्जल पोर।
अकुलाहट पर पौध रोप दे
दृग रहे दरस के भूखे।।
कैसी तृप्ती है औझड़ सी
तृषा बिना ऋतु के झरती ।
अनदेखी सी चाह हृदय में
बंद कपाट उर्मि भरती।
लहकी नागफणी मरुधर में
लूं तप्त फिर भी न सूखे।।
पंथ जोहते निनिर्मेष से
कोई टोह नहीं आती।
चांद रात में दुखित चकोरी
दग्ध कौमुदी तड़पाती।
कब तक होगी शेष प्रतीक्षा
पीर झेलें बन बिजूखे।।
कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 27 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी सादर आभार।
Deleteमैं अवश्य मुखरित मौन पर आऊंगी आदरणीय।
बेहतरीन नवगीत सखी 👌
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी, उत्साहवर्धन हुआ।
Deleteवाह दी अति सुंदर ऋतु अनुरूप सृजन।
ReplyDeleteकोमल शब्दावली से निसृत शीतल फुहार सी।
बहुत सा स्नेह आभार श्वेता आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना को प्रवाह मिला,और मुझे प्रसन्नता।
Deleteसदा स्नेह मिलता रहे ।
ReplyDeleteनमस्ते,
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 28 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपकी रचना की पंक्ति-
"कैसी तृप्ती है औझड़-सी"
हमारी प्रस्तुति का शीर्षक होगी।
जी सादर आभार भाई रविन्द्र जी रचना की पंक्ति को शीर्ष पर रख जो सम्मान दिया उससे मन अभिभूत हुआ ।
Deleteपुनः आत्मीय आभार।
मैं मंच पर जरूर हाजिर रहूंगी।
सादर।
वाह! कविता है या कलकल छलछल करती मंदाकिनी की शोख किल्लोलें! बहुत सुन्दर!!!
ReplyDeleteवाह क्या बात है विश्वमोहन जी इतनी सरस प्रतिक्रिया की रचना धन्य हुई, सच मन से उत्साह वर्धन हुआ आपकी टिप्पणी से ,रचना प्रवाहमान हुई ।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका।
नये प्रतिमानों के साथ सुन्दर गीत।
ReplyDeleteसादर प्रणाम आदरणीय।
Deleteआपके आशीर्वाद से लेखन सार्थक हुआ।
सादर।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28.5.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3715 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
जी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteगहन अर्थों में सिमटा सुंदर सृजन सराहना से परे है.
ReplyDeleteपंथ जोहते निनिर्मेष से
कोई टोह नहीं आती।
चांद रात में दुखित चकोरी
दग्ध कौमुदी तड़पाती।
कब तक होगी शेष प्रतीक्षा
पीर झेलें बन बिजूखे।।..वाह!बहुत ही उत्कृष्ट.
सादर
बहुत ही सुंदर रचना.. शब्द शब्द मन में उतर रह़े़।
ReplyDeleteकैसी तृप्ति है औझड़ सी..👌👌
बहुत खूब !
ReplyDeleteवाह!कुसुम जी ,क्या बात है ,बहुत खूब!
ReplyDeleteचांद रात में दुखित चकोरी
ReplyDeleteदग्ध कौमुदी तड़पाती।
कब तक होगी शेष प्रतीक्षा
पीर झेलें बन बिजूखे।।
वाह!!!!
बहुत ही सुन्दर, अद्भुत शानदार बिम्ब
लाजवाब नवगीत।
अत्यंत मनमोहक प्रस्तुति
ReplyDelete