सिली लकड़ी धुआं धुंआ हो
बुझी बुझी आंखें झुलसा रही।
लो आई बैरी बौछार तेजी से
अध जला सा चूल्हा बुझा रही।।
काम नही मिलता मजदूरों को
बैरी जेबें खाली मुंह चिढा रही।
बच्चे भुखे,खाली पेट,तपे तन
मजबूर मां बातों से बहला रही।।
नियति कैसे-कैसे खेल रचाती
न जाने किसकी क्या खता रही
जो पहले से हैं शोषित औ क्षुब्ध
उन्हें ही सबसे ज्यादा सता रही।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बुझी बुझी आंखें झुलसा रही।
लो आई बैरी बौछार तेजी से
अध जला सा चूल्हा बुझा रही।।
काम नही मिलता मजदूरों को
बैरी जेबें खाली मुंह चिढा रही।
बच्चे भुखे,खाली पेट,तपे तन
मजबूर मां बातों से बहला रही।।
नियति कैसे-कैसे खेल रचाती
न जाने किसकी क्या खता रही
जो पहले से हैं शोषित औ क्षुब्ध
उन्हें ही सबसे ज्यादा सता रही।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
मार्मिक सत्य!
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(२३-०५-२०२०) को शब्द-सृजन- २२ "मज़दूर/ मजूर /श्रमिक/श्रमजीवी" (चर्चा अंक-३७११) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
मार्मिक प्रस्तुति।
ReplyDeleteयथार्थ और मार्मिक सृजन कुसुम जी ,सादर नमन
ReplyDeleteकाम नही मिलता मजदूरों को
ReplyDeleteबैरी जेबें खाली मुंह चिढा रही।
बच्चे भुखे,खाली पेट,तपे तन
मजबूर मां बातों से बहला रही।।
आखिर कब तक बहलाए माँ भी ....
बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन।
हृदयस्पर्शी रचना
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