मेहनतकश
मेहनतकश आज भर की
जुगाड़ नही कर पाता
कल की क्या सोचे
भुखा बिलखता बचपन
पेट भी नही भर पाता
पढने की क्या सोचे,
कैसी विडम्बना है कि कोई
महल दो महले पाकर भी खुश नही
और कोई एक वक्त का
काम मिलते ही खुश हो जाता
यही है सत्य का बिलखता चेहरा
पर कोई देखना नही चाहता ।
कसुम कोठारी ।
निर्मम सत्य!
ReplyDeleteसादर आभार।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(२३-०५-२०२०) को शब्द-सृजन- २२ "मज़दूर/ मजूर /श्रमिक/श्रमजीवी" (चर्चा अंक-३७११) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसस्नेह।
सार्थक चिन्तन।
ReplyDeleteविडम्बना ही है यह हमारे देश में।
जी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय,रचना को आशीर्वाद मिला ।
Deleteसच है।
ReplyDeleteसादर आभार आपका आदरणीय।
Deleteसत्य कहा आपने , मार्मिक सृजन कुसुम जी ,सादर नमन
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी ।
Deleteउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए।
सस्नेह।
बहुत सही कहा. श्रमिकों का यही जीवन.
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका जेन्नी जी ,
Deleteसार्थक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
सही कहा आज भर की
ReplyDeleteजुगाड़ नही कर पाता कल की क्या सोचे
बहुत ही मार्मिक सृजन।
बहुत सा स्नेह आभार आपका सुधा जी।
Deleteसुंदर प्रतिक्रिया से उत्साह वर्धन हुआ।
सार्थक सृजन सखी
ReplyDeleteबहुत सा आभार सखी।
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