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Saturday, 23 May 2020

मेहनतकश

मेहनतकश

मेहनतकश आज भर की
जुगाड़ नही कर पाता
कल की क्या सोचे
भुखा बिलखता बचपन
पेट भी नही भर पाता
पढने की क्या सोचे,
कैसी विडम्बना है कि कोई
महल दो महले पाकर भी खुश नही   
और कोई एक वक्त का
काम मिलते ही खुश हो जाता
यही है सत्य का बिलखता चेहरा
पर कोई देखना नही चाहता  ।
          कसुम कोठारी ।

16 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(२३-०५-२०२०) को शब्द-सृजन- २२ "मज़दूर/ मजूर /श्रमिक/श्रमजीवी" (चर्चा अंक-३७११) पर भी होगी।

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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    1. बहुत बहुत आभार आपका।
      सस्नेह।

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  2. सार्थक चिन्तन।
    विडम्बना ही है यह हमारे देश में।

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    1. जी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय,रचना को आशीर्वाद मिला ।

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  3. Replies
    1. सादर आभार आपका आदरणीय।

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  4. सत्य कहा आपने , मार्मिक सृजन कुसुम जी ,सादर नमन

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    1. बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी ।
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए।
      सस्नेह।

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  5. बहुत सही कहा. श्रमिकों का यही जीवन.

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    Replies
    1. जी बहुत बहुत आभार आपका जेन्नी जी ,
      सार्थक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।

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  6. सही कहा आज भर की
    जुगाड़ नही कर पाता कल की क्या सोचे
    बहुत ही मार्मिक सृजन।

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    1. बहुत सा स्नेह आभार आपका सुधा जी।
      सुंदर प्रतिक्रिया से उत्साह वर्धन हुआ।

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  7. सार्थक सृजन सखी

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