आत्म बोध की ज्योति
अब काल का अवसान हुआ
सब ये सिमटी झुठी माया ।
मोह पिंजर क्यों बंधा सोच
कर थे खाली तू जब आया।
पंछी दाना जब चुगता है
तब आत्ममुग्ध सा रहता है।
और तीर लगे अहेरी का
भीषण पीड़ा वो सहता है।
है घायल सोचे मूढ़ मना
बहुत बचा थोड़ा खाया।।
थिर नही भानु चंद्र जगत में
अम्बर अवनी अहर्निस घूमे ।
ये माटी की कंचन काया
मोह डोर बंधन में झूमे।
लगी काल की जब इक ठोकर
चूर चूर माटी का जाया।।
चँचल चित्त हय वश में करले
तू इधर उधर मत डोल मना।
स्थिर अंतर का भेद समझ अब
सुंदर शाश्वत का मोल घना।
वह आत्म बोध की ज्योति जली
यह भू पतिता कंचुक काया।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'
अब काल का अवसान हुआ
सब ये सिमटी झुठी माया ।
मोह पिंजर क्यों बंधा सोच
कर थे खाली तू जब आया।
पंछी दाना जब चुगता है
तब आत्ममुग्ध सा रहता है।
और तीर लगे अहेरी का
भीषण पीड़ा वो सहता है।
है घायल सोचे मूढ़ मना
बहुत बचा थोड़ा खाया।।
थिर नही भानु चंद्र जगत में
अम्बर अवनी अहर्निस घूमे ।
ये माटी की कंचन काया
मोह डोर बंधन में झूमे।
लगी काल की जब इक ठोकर
चूर चूर माटी का जाया।।
चँचल चित्त हय वश में करले
तू इधर उधर मत डोल मना।
स्थिर अंतर का भेद समझ अब
सुंदर शाश्वत का मोल घना।
वह आत्म बोध की ज्योति जली
यह भू पतिता कंचुक काया।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (06-05-2020) को "शराब पीयेगा तो ही जीयेगा इंडिया" (चर्चा अंक-3893) पर भी होगी। --
ReplyDeleteसूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
आप सब लोग अपने और अपनों के लिए घर में ही रहें।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार आदरणीय ,
Deleteआपके द्वारा रचना को चुनना बहुत सुखद अहसास है।
मैं चर्चा पर अवश्य उपस्थित होने की कोशिश करूंगी।
सादर।
वाह!कुसुम जी ,बहुत खूब!ये चंचल चित्त वश में हो जाए तो फिर बात ही क्या ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार शुभा जी, सुंदर सार्थक प्रतिक्रिया।
Deleteसस्नेह।
बहुत सुंदर 👌🏻👌🏻👌🏻
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी।
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआत्मबोध के लिए आत्मावलोकन से गुज़रते हुए तत्त्वबोध का मर्म समझना और जीवन में आत्मसात करना संतोष का धरातल निर्मित करना है। शान्ति,समन्वय,सौहार्द्र को जीवन में उतारना और उसे जीवन में अपनाकर चरितार्थ करना जीने की महान कला है। नवगीत में सुंदर संदेश समाहित है।
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनाएँ।
सादर नमन आदरणीया दीदी।
सुंदर विस्तृत और समीक्षात्मक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई और रचना के भाव स्पष्ट हुए ।
Deleteइतनी गहन दृष्टि समीक्षा के लिए बहुत बहुत आभार भाई आपका।
सस्नेह।
बहुत सुंदर गीत दी। सार्थक संदेश और भावों से गूँथी अप्रतिम सृजन।
ReplyDeleteबहुत बहुत स्नेह आभार श्वेता।
Deleteआपकी टिप्पणी से सदा आंतरिक खुशी मिलती है।
सस्नेह।
बहुत सुंदर नवगीत
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी।
Deleteउत्साहवर्धन हेतु।
स्थिर अंतर का भेद समझ अब
ReplyDeleteसुंदर शाश्वत का मोल घना।
वह आत्म बोध की ज्योति जली
यह भू पतिता कंचुक काया।
अति सुंदर भावपूर्ण सृजन ,सादर नमस्कार कुसुम जी
बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना को प्रवाह मिला।
Deleteसस्नेह।
ज्ञान के चक्षु खोलने के लिए आत्मबोध ज़रूरी है. आपके नवगीत में जीवन की विभिन्न परस्थितियों में संयम धारण करने की सहज स्थितियों को उभारा है आदरणीया दीदी आपने. सुंदर एवं उत्कृष्ट नवगीत.
ReplyDeleteसादर.
बहुत बहुत स्नेह आभार अनिता आपकी विश्लेषणात्मक गहन प्रतिक्रिया से ,रचना को प्रवाह और मुझे लेखन की नव ऊर्जा मिली ।
Deleteसस्नेह।