Tuesday, 26 May 2020

लहकी नागफणी

लहकी नागफणी

महक उठे है मधुबन जैसे
पात हृदय के जो लूखे।
अक्षि पार्श्व दर्शन जो होते
पतझड़ खिल जाते रूखे।

व्याकुल होकर मोर नाचता
आस अटकी नभ के छोर।
आके नेह घटाएं बरसो
हैं धरा का निर्जल पोर।
अकुलाहट पर पौध रोप दे
दृग रहे दरस के भूखे।।

कैसी तृप्ती है औझड़ सी
तृषा बिना ऋतु के झरती ।
अनदेखी सी चाह हृदय में
बंद कपाट उर्मि  भरती।
लहकी नागफणी मरुधर में
लूं तप्त फिर भी न सूखे।।

पंथ जोहते निनिर्मेष से
कोई टोह नहीं आती।
चांद रात में दुखित चकोरी
दग्ध कौमुदी तड़पाती।
कब  तक होगी शेष प्रतीक्षा
पीर झेलें बन बिजूखे।।

कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

20 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 27 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी सादर आभार।
      मैं अवश्य मुखरित मौन पर आऊंगी आदरणीय।

      Delete
  2. बेहतरीन नवगीत सखी 👌

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार सखी, उत्साहवर्धन हुआ।

      Delete
  3. वाह दी अति सुंदर ऋतु अनुरूप सृजन।
    कोमल शब्दावली से निसृत शीतल फुहार सी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत सा स्नेह आभार श्वेता आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना को प्रवाह मिला,और मुझे प्रसन्नता।
      सदा स्नेह मिलता रहे ।

      Delete

  4. नमस्ते,

    आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 28 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!



    आपकी रचना की पंक्ति-

    "कैसी तृप्ती है औझड़-सी"

    हमारी प्रस्तुति का शीर्षक होगी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी सादर आभार भाई रविन्द्र जी रचना की पंक्ति को शीर्ष पर रख जो सम्मान दिया उससे मन अभिभूत हुआ ।
      पुनः आत्मीय आभार।
      मैं मंच पर जरूर हाजिर रहूंगी।
      सादर।

      Delete
  5. वाह! कविता है या कलकल छलछल करती मंदाकिनी की शोख किल्लोलें! बहुत सुन्दर!!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. वाह क्या बात है विश्वमोहन जी इतनी सरस प्रतिक्रिया की रचना धन्य हुई, सच मन से उत्साह वर्धन हुआ आपकी टिप्पणी से ,रचना प्रवाहमान हुई ।
      बहुत बहुत आभार आपका।

      Delete
  6. नये प्रतिमानों के साथ सुन्दर गीत।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर प्रणाम आदरणीय।
      आपके आशीर्वाद से लेखन सार्थक हुआ।
      सादर।

      Delete
  7. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28.5.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3715 में दिया जाएगा
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।

      Delete
  8. गहन अर्थों में सिमटा सुंदर सृजन सराहना से परे है.
    पंथ जोहते निनिर्मेष से
    कोई टोह नहीं आती।
    चांद रात में दुखित चकोरी
    दग्ध कौमुदी तड़पाती।
    कब तक होगी शेष प्रतीक्षा
    पीर झेलें बन बिजूखे।।..वाह!बहुत ही उत्कृष्ट.
    सादर

    ReplyDelete
  9. बहुत ही सुंदर रचना.. शब्द शब्द मन में उतर रह़े़।
    कैसी तृप्ति है औझड़ सी..👌👌

    ReplyDelete
  10. वाह!कुसुम जी ,क्या बात है ,बहुत खूब!

    ReplyDelete
  11. चांद रात में दुखित चकोरी
    दग्ध कौमुदी तड़पाती।
    कब तक होगी शेष प्रतीक्षा
    पीर झेलें बन बिजूखे।।
    वाह!!!!
    बहुत ही सुन्दर, अद्भुत शानदार बिम्ब
    लाजवाब नवगीत।

    ReplyDelete
  12. अत्यंत मनमोहक प्रस्तुति

    ReplyDelete