Sunday, 24 May 2020

विधु का सागर स्नान

विधु का सागर स्नान

वायु वेग में विचलित विचि
क्षीरनिधि को भा रही है।
तरंग मोहित हो शशि पर
तट कुलांचे खा रही है।

रूप यूं निखरा निशा का
नील जलज शोभा सरसी।
झूके मुकुल नैना सलज
नभ से ज्यों आभा बरसी।
उर्मियाँ घूँघट हटाकर
फिर मचलती आ रही हैं।।

पूनो का मृगांक मंजुल
द्युलोक अँगन लीला करे।
झिलमिलाते तारकों से
जीवन सोम निर्झर झरे।
भर पियूष मयूख वर्तुल
चांदनी भी गा रही है ।।

रजनीपति किलोल करते
पारावार अवगाहना
झाग मंडित नीर सारा
उबटन रजत कर नाहना
बैठ कौमुदी झूले पर
रात बीती जा रही है।।

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

18 comments:

  1. बहुत खूबसूरत नवगीत आदरणीया दीदी🏵️👌👌

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    1. बहुत सा स्नेह आभार बहना ।

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    1. बहुत बहुत आभार आदरणीय।
      सादर।

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  3. बहुत ही खूबसूरत नवगीत सखी

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    1. बहुत सा आभार सखी, उत्साहवर्धन हुआ।
      सस्नेह ‌

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  4. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 25 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत बहुत आभार आदरणीय।
      मैं अवश्य उपस्थित रहूंगी ।
      सादर।

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  5. सुन्दर प्राकृति के भाव से सजा नव गीत ...

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    1. बहुत सा आभार आपका नासवा जी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
      से रचना मुखरित हुई ‌
      सादर।

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  6. बहुत सुंदर सखी

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    1. बहुत बहुत आभार सखी ब्लाग पर आपको देख मन हर्षित हुआ।
      सस्नेह।

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  7. अद्भुत सृजन.... सुंदर नवगीत दीदी

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    2. बहुत सा स्नेह आभार आपका सुधा बहना।
      सस्नेह।

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  8. बहुत सा सरनेम आभार ज्योति बहन।

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  9. बहुत सुंदर

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  10. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सखी

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