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Wednesday, 5 December 2018

लो बजी शहनाई

दूर कहीं शहनाई बजी
आहा! आज फिर किसी के
सपने रंग भरने लगे
आज फिर एक नवेली
नया संसार बसाने चली
मां ने वर्ण माला सिखाई
तब सोचा भी न होगा
चली जायेगी
जीवन के नये अर्थ सीखने
यूं अकेली
किसी अजनबी के साथ
जो हाथ न छोडती थी कभी
गिरने के डर से
वही हाथ छोड किसी
और का हाथ थाम चल पड़ी
जिसका पूरा आसमान
मां का आंचल था
वो निकल पड़ी
विशाल आसमान में
उडने, अपने पंख फैला
जिसकी दुनिया थी
बस मां के आस पास
वो चली आज एक
नई दुनिया बसाने
शहनाई बजी फिर
लो एक डोली उठी फिर।

       कुसुम कोठारी।

15 comments:

  1. हदयस्पर्शी...मार्मिक रचना
    लो एक डोली उठी फिर
    👌👌👌👌

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    1. सादर आभार रविंद्र जी।

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  2. बहुत ही सुन्दर.. ..मार्मिक रचना 👌👌सखी !!

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  3. लाजवाब रचना सखी।

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    1. आपको पसंद आई सखी सस्नेह आभार ।

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  4. नारी जीवन की अजीब यात्रा का बहुत सुंदर वर्णन, कुसुम दी।

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    1. आपकी सटीक व्याख्या से रचना को प्रवाह मिला ज्योति बहन ।
      सस्नेह आभार ।

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  5. सस्नेह आभार प्रिय सखी यूं ही उत्साह बढाती रहें।

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  6. खूबसूरत, मर्मस्पर्शी रचना मीता

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    1. आभार मीता ढेर सा। ब्लॉग पर देख बहुत खुशी हुई ।

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  7. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 10 दिसम्बर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  8. बहुत खूबसूरत, हृदयस्पर्शी रचना...
    जिसका पूरा आसमान
    मां का आंचल था
    वो निकल पड़ी
    विशाल आसमान में
    वाह!!!

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    1. सुधा जी आपकी सराहना सदा मेरा मार्ग दर्शन करती है सदा स्नेह बनाये रखें ।
      सस्नेह आभार।

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