अगन बरसती आसमां से जाने क्या क्या झुलसेगा
ज़मीं तो ज़मीं खुद तपिश से आसमां भी झुलसेगा
जा ओ जेठ मास समंदर में एक दो डुबकी लगा
जिस्म तेरा काला हुवा खुद तूं भी अब झुलसेगा
ओढ के ओढनी रेत की पसरेगा तूं बता कहां
यूं बेदर्दी से जलता रहा तो सारा संसार झुलसेगा
देख आ एक बार किसानों की जलती आंखों में
उजडी हुई फसल में उनका सारा जहाँ झुलसेगा
प्यासे पाखी प्यासी धरती प्यासे मूक पशु बेबस
सूरज दावानल बरसाता तपिश से चांद झुलसेगा
ना इतरा अपनी जेष्ठता पर समय का दास है तूं
घिर आई सावन घटाऐं फिर भूत बन तूं झुलसेगा।
कुसुम कोठारी।
ज़मीं तो ज़मीं खुद तपिश से आसमां भी झुलसेगा
जा ओ जेठ मास समंदर में एक दो डुबकी लगा
जिस्म तेरा काला हुवा खुद तूं भी अब झुलसेगा
ओढ के ओढनी रेत की पसरेगा तूं बता कहां
यूं बेदर्दी से जलता रहा तो सारा संसार झुलसेगा
देख आ एक बार किसानों की जलती आंखों में
उजडी हुई फसल में उनका सारा जहाँ झुलसेगा
प्यासे पाखी प्यासी धरती प्यासे मूक पशु बेबस
सूरज दावानल बरसाता तपिश से चांद झुलसेगा
ना इतरा अपनी जेष्ठता पर समय का दास है तूं
घिर आई सावन घटाऐं फिर भूत बन तूं झुलसेगा।
कुसुम कोठारी।
यही तो बेबसी है बहुत ही खुबसूरत...
ReplyDeleteसादर आभार।
Deleteबहुत बहुत सुंदर रचना दी..
ReplyDeleteदेख आ एक बार किसानों की जलती आंखों मे
उजडी हुई फसल मे उनका सारा जहाँ झुलसेगा
प्यासे पाखी प्यासी धरती प्यासे मूक पशु बेबस
सूरज दावानल बरसाता तपिश से चांद झुलसेगा
बहुत सुंदर लिखा दी👌👌👌
सस्नेह ढेर सा आभार श्वेता।
Deleteअप्रतिम काव्य मीता ...तपिश का कहर और मजबूरी का मार्मिक चित्रण ...शब्द शब्द झुलसाता सा !
ReplyDeleteसावन की आस जगाता सा !
ढेर सा स्नेह आभार मीता सुंदर उत्साह वर्धन करती पंक्तियाँ।
Deleteवाह ! लाजवाब प्रस्तुति ! बहुत खूब आदरणीया ।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय!
Deleteउत्साह बढाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।
बहुत खूबसूरत सृजन ।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया
Deleteमौसम के मिजाज पर सटीक रचना
ReplyDeleteलाजवाब
सादर आभार लोकेश जी
Delete
ReplyDeleteना इतरा अपनी जेष्ठता पर समय का दास है तूं
घिर आई सावन घटाऐं फिर भूत बन तूं झुलसेगा। बहुत ही बेहतरीन रचना सखी
बहुत बहुत आभार प्रिय सखी आपकी टिप्पणी से रचना को प्रवाह मिला ।
Deleteसस्नेह।
देख आ एक बार किसानों की जलती आंखों में
ReplyDeleteउजडी हुई फसल में उनका सारा जहाँ झुलसेगा....बहुत ख़ूब प्रिय दी जी
वाह बहन बहुत दारुण पंक्तियों पर विशेष नजर रचना सार्थक हुई।
Deleteसस्नेह आभार
मौसम का बहुत ही सुंदर चित्रण,कुसुम दी।
ReplyDeleteसस्नेह आभार प्रिय ज्योति बहन ।
Deleteवाह!!कुसुम जी ,बहुत खूब👍👍
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार शुभा जी मन खुश हुवा ।
Deleteसस्नेह ।
आधुनिक युग में मौसम की मार की पीड़ा सबसे ज्यादा निर्धन लोगों को ही उठाना पड़ता है,परंतु मौसम का चक्र आगे बढते ही थोड़ा सुकून मिलता है
ReplyDeleteसुन्दर चित्रण
ना इतरा अपनी जेष्ठता पर समय का दास है तूं
ReplyDeleteघिर आई सावन घटाऐं फिर भूत बन तूं झुलसेगा।
बहुत खूब ,जेठ की गर्मी से बाते करती आप की रचना लाजबाब सादर नमस्कार