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Friday, 25 May 2018

तपिश

अगन बरसती आसमां से जाने क्या क्या झुलसेगा
ज़मीं तो ज़मीं खुद तपिश से आसमां भी झुलसेगा

जा ओ जेठ मास समंदर में एक दो डुबकी लगा
जिस्म तेरा काला हुवा खुद तूं भी अब झुलसेगा

ओढ के ओढनी रेत की  पसरेगा तूं बता कहां
यूं बेदर्दी से जलता रहा तो सारा संसार झुलसेगा

देख आ एक बार किसानों की जलती आंखों में
उजडी हुई फसल में उनका सारा जहाँ झुलसेगा

प्यासे पाखी प्यासी धरती प्यासे मूक पशु बेबस
सूरज दावानल बरसाता तपिश से चांद झुलसेगा

ना इतरा अपनी जेष्ठता पर समय का दास है तूं
घिर आई सावन घटाऐं फिर भूत बन तूं झुलसेगा।
                                 कुसुम कोठारी।

22 comments:

  1. यही तो बेबसी है बहुत ही खुबसूरत...

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  2. बहुत बहुत सुंदर रचना दी..
    देख आ एक बार किसानों की जलती आंखों मे
    उजडी हुई फसल मे उनका सारा जहाँ झुलसेगा

    प्यासे पाखी प्यासी धरती प्यासे मूक पशु बेबस
    सूरज दावानल बरसाता तपिश से चांद झुलसेगा

    बहुत सुंदर लिखा दी👌👌👌

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    1. सस्नेह ढेर सा आभार श्वेता।

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  3. अप्रतिम काव्य मीता ...तपिश का कहर और मजबूरी का मार्मिक चित्रण ...शब्द शब्द झुलसाता सा !
    सावन की आस जगाता सा !

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    1. ढेर सा स्नेह आभार मीता सुंदर उत्साह वर्धन करती पंक्तियाँ।

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  4. वाह ! लाजवाब प्रस्तुति ! बहुत खूब आदरणीया ।

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    1. सादर आभार आदरणीय!
      उत्साह बढाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।

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  5. बहुत खूबसूरत सृजन ।

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  6. मौसम के मिजाज पर सटीक रचना
    लाजवाब

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  7. ना इतरा अपनी जेष्ठता पर समय का दास है तूं
    घिर आई सावन घटाऐं फिर भूत बन तूं झुलसेगा। बहुत ही बेहतरीन रचना सखी

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    1. बहुत बहुत आभार प्रिय सखी आपकी टिप्पणी से रचना को प्रवाह मिला ।
      सस्नेह।

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  8. देख आ एक बार किसानों की जलती आंखों में
    उजडी हुई फसल में उनका सारा जहाँ झुलसेगा....बहुत ख़ूब प्रिय दी जी

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    1. वाह बहन बहुत दारुण पंक्तियों पर विशेष नजर रचना सार्थक हुई।
      सस्नेह आभार

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  9. मौसम का बहुत ही सुंदर चित्रण,कुसुम दी।

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    1. सस्नेह आभार प्रिय ज्योति बहन ।

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  10. वाह!!कुसुम जी ,बहुत खूब👍👍

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    1. बहुत बहुत आभार शुभा जी मन खुश हुवा ।
      सस्नेह ।

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  11. आधुनिक युग में मौसम की मार की पीड़ा सबसे ज्यादा निर्धन लोगों को ही उठाना पड़ता है,परंतु मौसम का चक्र आगे बढते ही थोड़ा सुकून मिलता है
    सुन्दर चित्रण

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  12. ना इतरा अपनी जेष्ठता पर समय का दास है तूं
    घिर आई सावन घटाऐं फिर भूत बन तूं झुलसेगा।
    बहुत खूब ,जेठ की गर्मी से बाते करती आप की रचना लाजबाब सादर नमस्कार

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