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Thursday, 17 May 2018

रे मानव तूं मूढ़ मते

हे मूरख नर
महा अज्ञानी
क्या कर रहा
तूं अभिमानी
अपने नाश का
बीज बो रहा
क्यों कहते
तूझे सुज्ञानी
आज तक विज्ञान
खोज मे
एक बात तो साफ हुई
कितने ग्रह उपग्रह है
लेकिन
इस धरा को छोड,
ना है मानव कहीं
तूं इसी धरा को
रहा उजाड़
दोहन करता,
प्रदूषित करता
वन  उजाड़ता ,
पेड़ काटता
अपने सर्वनाश का
खुद इंतजाम करता
जब ये धरा न होगी
कहां रहेगा तूं
सोच और कर मनन
क्यों हाथ अपने काट रहा
तरसेगा स्वच्छ हवा को
छटपटाता सा जीवन
सच क्षण भंगुर होगा
चेत चेत रे मूढ़ मते
अंत तुझे पछताना होगा।
       कुसुम कोठारी।

17 comments:

  1. सुंदर संदेशात्मक और प्रेरक कविता दी।
    समय रहते चेतना ही चाहिए वरना भुगतान कर पाना मुश्किल हो जायेगा।

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  2. स्नेह आभार श्वेता, दुष्परिणाम तो आने वाली पीढ़ीयां भुगतेगी लक्षण अभी से दृष्टिगोचर हो रहे हैं।

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  3. जिस डाल पर बैठा है उसी को काट रहा है
    या जिस थाली में खता है उसी में छेद कर रहा है.

    चेतेगा कब पता नही.
    सुंदर रचना.


    हाथ पकडती है और कहती है ये बाब ना रख (गजल 4)

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  4. अभिमान विनाश का कारण बन जाता है
    एक उत्कृष्ट रचना

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    1. जी सकारात्मक प्रतिक्रिया कि स्वागत है सादर आभार।

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २१ मई २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  6. सुन्दर सीख देती प्रेरक रचना...
    वाह!!!!

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    1. ढेर सारा आभार सुधा जी।

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  7. मानव चेतना को जगाती उसके द्वारा किए जा पतन से अवगत कराती सुंदर संदेश देती लाजवाब रचना

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    1. सुंदर प्रतिक्रिया का शुक्रिया बहन

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  8. This comment has been removed by the author.

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  9. मानव की भौतिकतावादी सोच ने पर्यावरण को गंभीर ख़तरे पैदा किये हैं। प्रकृति के कटता जीवन अपनी रचनात्मकता केवल सुविधाभोगी आयामों तक सिमट गयी है।

    सुन्दर रचना का सन्देश प्रभावशाली है।

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    1. जी सक्रिय व्याख्यात्मक प्रतिक्रिया का बहुत बहुत आभार।
      सार्थक संभाषण पर्यावरण संरक्षण पर।
      सटीक कथन।

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  10. सुंदर संदेश देती सार्थक रचना सखी

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    1. बहुत बहुत आभार सखी आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मिली।
      सस्नेह।

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