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Tuesday, 22 May 2018

सपनों का गांव

सपनो का एक
गांव बसालें
झिल मिल
तारों से सजालें
टांगें सूरज
ओंधा टहनी पर
रखें चाॅद
सन्दुकची मे बंद कर
रोटी के कुछ
झाड लगा लें
तोड रोटिया
जब चाहे खा लें
सोना चांदी
बहता झर झर
पानी
तिजोरियों के अंदर
टाट पे पैबंद
मखमल का
उडे तन उन्मुक्त
पंछियों सा।
          कुसुम कोठारी ।

9 comments:

  1. बेहद खूबसूरत ख्वाब
    हृदयस्पर्शी मन में एक सुंदर चित्र खींचती लाजवाब रचना दीदी जी
    सुप्रभात शुभ दिवस

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    1. बस मन बच्चा यूंही चहक उठता है ख्वाब देखता है मीठे से,
      स्नेह आभार बहना ।

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  2. सुंदर स्वप्न है दी...हर निर्धन यही ख़्वाब देखता है शायद।
    काश कि इन ख़्वाबों में एक भी सच हो पाता।
    हमेशा.की तरह आपकी बेमिसाल रचना दी...वाहहह👌👌

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    1. स्नेह आभार श्वेता, स्वप्न तो स्वप्न ही होते हैं बस कुछ पल की खुशी दे जाते है, संसार मे गरीब कब स्वप्न साकार कर पाते हैं।
      आपकी प्रतिक्रिया ब्लॉग पर देखती हूं तो सच बहुत खुशी होती है।

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  3. मन पंछी हो जाए तो उन्मुक्त उड़ान का अलग ही मज़ा है ... ख़्वाबों के पर लग जाते हैं ... सुंदर रचना है ...

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    1. जी सादर आभार ख्वाब ही है बिना पर भी उडते है सक्रिय प्रतिक्रिया का शुक्रिया ।

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  4. वाहः बहुत ही खूबसूरत

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