एक ओस बूंद का आत्म बोध
निलंबन हुवा निलाम्बर से ,
भान हुवा अच्युतता का, कुछ क्षण
गिरी वृक्ष चोटी ,इतराई ,
फूलों पत्तों दूब पर देख ,
अपनी शोभा मुस्काई ।
गर्व से अपना रूप मनोहर
आत्म प्रशंसा भर लाया ,
सूर्य की किरण पडी सुनहरी
अहा शोभा द्विगुणीत हुई !
भाव अभिमान के थे अब उर्ध्वमुखी ।
भूल गई "मैं "अब निश्चय है अंत पास में ,
मैं तुषार बूंद नश्वर,भूली अपना रूप ,
कभी आलंबन अंबर का ,
कभी तृण सहारे सा अस्तित्व ,
पराश्रित ,नाशवान शरीर
या !"मैं "आत्मा अविनाशी
भूल गई क्यों शुद्ध स्वरूप अपना।
कुसुम कोठारी।
मैं तुषार बूंद नश्वर,भूली अपना रूप ,
कभी आलंबन अंबर का ,
कभी तृण सहारे सा अस्तित्व ,
पराश्रित ,नाशवान शरीर
या !"मैं "आत्मा अविनाशी
भूल गई क्यों शुद्ध स्वरूप अपना।
कुसुम कोठारी।
मंत्रमुग्ध करती रचना। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया।
ReplyDeleteउर्ध्वमुखी लिखें ...👌
ReplyDeleteबहुत खूब ... ओस की बूँद ... स्वयं आत्मचिंतन करती ...
ReplyDeleteअपने अस्तित्व बोध से बहुत कुछ कहती ...
लाजवाब अभिव्यक्ति ... नव सन्देश लिए ...
बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
सादर