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Tuesday, 17 December 2019

संवरी हूं मैं

संवरी हूं मैं

कतरा-कतरा पिघली हूं मैं
फिर सांचे-सांचे ढली हूं मैं,
हां जर्रा-जर्रा बिखरी हूं मैं
फिर बन तस्वीर संवरी हूं मैं , 
अपनो को देने खुशी
अपनो संग चली हूं मैं ,
अपना अस्तित्व भूल
सब का अस्तित्व बनी हूं मैं,
कुछ हाथ आंधी से बचा रहे थे
तभी रौशन हो शमा सी जली हूं मैंं,
छूने को  उंचाईयां
रुख संग हवाओं के बही हूं मैं।

           कुसुम कोठारी।

8 comments:

  1. "कतरा-कतरा पिघली हूं मैं
    फिर सांचे-सांचे ढली हूं मैं,
    हां जर्रा-जर्रा बिखरी हूं मैं
    फिर बन तस्वीर संवरी हूं मै"
    वाह, बहुत खूब

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 18 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. वाह !
    बहुत ही सुंदर सृजन
    🙏

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२१ -११ -२०१९ ) को "यह विनाश की लीला"(चर्चा अंक-३५५६) पर भी होगी।

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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  5. कम शब्दों में ही सब कुछ समाहित कर देती हैं आप खूबसूरत रचना

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  6. अपना अस्तित्व भूल
    सब का अस्तित्व बनी हूं मैं, वाह बेहतरीन रचना सखी 👌👌

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  7. बहुत सुंदर सृजन दी।
    भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी स्त्रियों के चरित्र को बड़ी खूबसूरती से आपने अपने शब्दों में उकेरा है

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  8. नारी मन की भावनाओं को बहुत ही सुघड़ता से शब्दबद्ध किया है आपने कुसुम बहन | सराहनीय पंक्तियाँ |

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