सर्द हवा की थाप
बंद होते दरवाजे खिडकियां,
नर्म गद्दों में रजाई से लिपटा तन
और बार बार होठों से फिसलते शब्द
आज कितनी ठंड है!
कभी ख्याल आया उनका
जिन के पास रजाई तो दूर
हड्डियों पर मांस भी नही ,
सर पर छत नही ,
औऱ आशा कितनी बड़ी
कल धूप निकलेगी
ठंड कम हो जायेगी ,
अपनी भूख,बेबसी,
औऱ कल तक अस्तित्व
बचा लेने की लड़ाई ,
कुछ रद्दी चुन के अलाव बनायें
दो कार्य एक साथ ,
आज थोड़ा आटा हो तो
रोटी और ठंड दोनों सेक लें ।
कुसुम कोठरी ।
बंद होते दरवाजे खिडकियां,
नर्म गद्दों में रजाई से लिपटा तन
और बार बार होठों से फिसलते शब्द
आज कितनी ठंड है!
कभी ख्याल आया उनका
जिन के पास रजाई तो दूर
हड्डियों पर मांस भी नही ,
सर पर छत नही ,
औऱ आशा कितनी बड़ी
कल धूप निकलेगी
ठंड कम हो जायेगी ,
अपनी भूख,बेबसी,
औऱ कल तक अस्तित्व
बचा लेने की लड़ाई ,
कुछ रद्दी चुन के अलाव बनायें
दो कार्य एक साथ ,
आज थोड़ा आटा हो तो
रोटी और ठंड दोनों सेक लें ।
कुसुम कोठरी ।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 13 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteरोटी और ठण्ड ... दोनों सेक लें ...
ReplyDeleteसच में सर्दी में अलाव जले और कम्बल भी हो ... सब को उपलब्द्ध हो ... इससे ज्यादा क्या ...
वाह!!कुसुम जी ,सुंदर भावाभिव्यक्ति !
ReplyDeleteकुसुम जी, आपने भी प्रेमचंद की कहानी - 'पूस की रात' की याद दिला दी. रूसी कथा-साहित्य में ठण्ड की विभीषिका का वर्णन पाठकों को भी कंपकपा देता है. आपकी रचना पढ़कर चाय की दरकार तो हमको भी हो गयी है.
ReplyDeleteवाहः
ReplyDeleteबहुत बहुत खूब
अपनी भूख,बेबसी,
ReplyDeleteऔऱ कल तक अस्तित्व
बचा लेने की लड़ाई ,
कुछ रद्दी चुन के अलाव बनायें
दो कार्य एक साथ ,
आज थोड़ा आटा हो तो
रोटी और ठंड दोनों सेक लें । बेहतरीन रचना सखी 👌
बेहतरीन प्रस्तुति सखी।
ReplyDeleteआज थोड़ा आटा हो तो
ReplyDeleteरोटी और ठंड दोनों सेक लें ।
लाजवाब सृजन कुसुम जी ।
जिन के पास रजाई तो दूर
ReplyDeleteहड्डियों पर मांस भी नही ,
सर पर छत नही ,
औऱ आशा कितनी बड़ी
कल धूप निकलेगी
ठंड कम हो जायेगी ,
गरीबी और ठंड सच में कितना मुश्किल होता है गरीबों के लिए हर एक दिन...
बहुत ही हृदयस्पर्शी लाजवाब सृजन...
आज थोड़ा आटा हो तो
ReplyDeleteरोटी और ठंड दोनों सेक लें ।
वाह
जी सादर आभार।
Deleteसक्रिय प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
वाह कुसुम बहन | सुविधाहीन लोगों के विकल मन इस प्रचंड सर्दी में जाने क्या सोचकर रह जाते होंगे | अलाव पर रोटी और हाथ सेककर जीवन बचाने की कवायद करते इन लोगों का ख्याल आना ही चाहिए | ये संवदना ना हो तो रजाइ और गर्म गद्दों पर लेटकर हम इंसान खाने लायक नहीं |
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