अबूझ प्रकृति
है अबूझी सी कथाएं
खेल कौतुक से भरा
ये कलाकृति काल की या
सूत्र धारी है परा।।
पाकशाला देव गण की
कौनसी खिचड़ी पके
धुंधरी हर इक दिशा है
ओट से सूरज तके
धुंध का अम्बार भारी
व्योम से पाला झरा।।
ये प्रकृति सौ रूप धरती
कब अशुचि कब मोहिनी
मौसमी बदलाव इतने
रूक्ष कब हो सोहिनी
कौन रचता खेल ऐसे
है अचंभे से भरा।।
दृश्य मधुरिम से उकेरे
पर्वतों के छोर में
भानु लुकता फिर रहा है
शून्य रेखा खोर में
कोहरा वात्सल्य बिखरा
आज आँचल में धरा।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सुंदर प्रस्तुति । दिल्ली की बारिश भी कुछ ऐसा ही दृश्य उपस्थित कर रही ।
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २३ सितंबर २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 23 सितंबर 2022 को 'तेरे कल्याणकारी स्पर्श में समा जाती है हर पीड़ा' ( चर्चा अंक 4561) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
ये प्रकृति सौ रूप धरती
ReplyDeleteकब अशुचि कब मोहिनी
मौसमी बदलाव इतने
रूक्ष कब हो सोहिनी
कौन रचता खेल ऐसे
है अचंभे से भरा।। ...शानदार है प्रकृति और ईश्वर की रचना ..बहुत खूब कुसुम जी
ReplyDeleteसुन्दर तत्सम शब्द चित्रों का छंदबद्ध संकलन बारम्बार पठनीय बन पड़ा है |
मनोरम एवं गहन चिंतन
बेहतरीन व सूक्ष्म दृष्टि
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
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ReplyDeleteदृश्य मधुरिम से उकेरे
पर्वतों के छोर में
भानु लुकता फिर रहा है
शून्य रेखा खोर में
कोहरा वात्सल्य बिखरा
आज आँचल में धरा।।.. वाह !
सुंदर छायाचित्र जैसी रचना ।