अल्पकालिक कुंद कवि
मन घुमड़ते बादलों से
सृष्टि की चाहत लड़ी
तूलिका क्यों मूक होकर
दूर एकाकी खड़ी।
लेखनी को रोक देते
शब्द बन बैठे अहेरी
गीत कैसे अब खिलेंगे
धार में पत्थर महेरी
भाव ने क्रंदन मचाया
खिन्न कविता रो पड़ी।।
खिलखिलाई शाख पर थी
आज भू पर सो रही है
पाटलों के साथ खेली
धूल पर क्यों खो रही है
थाम कर कोमल करो से
सांभने की है घड़ी।।
हो समर्पित रचयिता बस
नींद त्यागेगी कभी तो
अल्प सा अवकाश मांगे
मोह निद्रा है अभी तो
तोड़ कर के कुंद पहरे
बह चले शीतल झड़ी।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सदैव की तरह बहुत मनमोहक सृजन ।शब्द सौष्ठव देखते ही बनता है । अति सुन्दर..,
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सार्थक बिंबों से सजी रचना सखी
ReplyDeleteपढ़ कर सोच रही हूँ कि सच ही तो लिखनीं कुंद हो रही है । सुंदर रचना ।
ReplyDeleteवाह! कविता है या मंदाकिनी का मधुरिम प्रवाह!!
ReplyDeleteहो समर्पित रचयिता बस
ReplyDeleteनींद त्यागेगी कभी तो
अल्प सा अवकाश मांगे
मोह निद्रा है अभी तो
तोड़ कर के कुंद पहरे
बह चले शीतल झड़ी।।
आप जैसे साहित्य सेवियों की लेखनी हमेंशा जगी रहे।
हमेशा की तरह बहुत ही अद्भुत एवं लाजवाब सृजन
वाह वाह अति उत्तम
ReplyDelete