वृद्ध वय ढलता सूर्य
पर्यटन अवसान को जब
है अभिज्ञा अब स्वता से
क्लांत हो मनसा भटकती
दूर होकर तत्वता से।
प्रोढ़ होता मन सुने अब
क्षीण से तन की कहानी
सोच पर तन्द्रा चढ़ी है
गात पतझर सा सहानी
रीत लट बन श्वेत वर्णी
झर रही परिपक्वता से।
खड़खड़ाती जिर्ण श्वासें
देह लिपटी कब रहेगी
तोड़ बंधन चल पड़ी तो
शून्य में जाकर बहेगी
कौन घर होगा ठिकाना
बैठ सोचे ह्रस्वता से।।
ताप ढलता सूर्य गुमसुम
ओट जैसे खोजता है
चैन फिर भी न मिलता
सुस्त बाहें खोलता है
थाम ने कोना क्षितिज का
मिचमिचाता अल्पता से।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-9-22} को विश्वकर्मा भगवान का वंदन" (चर्चा अंक 4555) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
सुंदर बिंबों से सजी , उत्तम शब्दावली से युक्त बेहतरीन रचना सखी सादर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteविम्बो और अभिव्यजनाओं का सुंदर समिश्रण! हार्दिक साधुवाद!
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteअति मुग्धकर कृति। सूर्य के परिवर्तित छवियों की निराली छटा। अति सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत ख़ूब
ReplyDeleteप्रोढ़ होता मन सुने अब
ReplyDeleteक्षीण से तन की कहानी
सोच पर तन्द्रा चढ़ी है
गात पतझर सा सहानी
अवसान की बेला का (जीवन का या सूर्य) का ))बहुत ही लाजवाब शब्दचित्रण...
वाह!!!