Sunday, 18 September 2022

अल्प कालिक कुंद कवि


 अल्पकालिक कुंद कवि


मन घुमड़ते बादलों से

सृष्टि की चाहत लड़ी

तूलिका क्यों मूक होकर

दूर एकाकी खड़ी।


लेखनी को रोक देते

शब्द बन बैठे अहेरी

गीत कैसे अब खिलेंगे

धार में पत्थर महेरी

भाव ने क्रंदन मचाया

खिन्न कविता रो पड़ी।।


खिलखिलाई शाख पर थी

आज भू पर सो रही है

पाटलों के साथ खेली 

धूल पर क्यों खो रही है

थाम कर कोमल करो से

सांभने की है घड़ी।।


हो समर्पित रचयिता बस

नींद त्यागेगी कभी तो

अल्प सा अवकाश मांगे

मोह निद्रा है अभी तो

तोड़ कर के कुंद पहरे

 बह चले शीतल झड़ी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

6 comments:

  1. सदैव की तरह बहुत मनमोहक सृजन ।शब्द सौष्ठव देखते ही बनता है । अति सुन्दर..,

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  2. बहुत ही सुन्दर सार्थक बिंबों से सजी रचना सखी

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  3. पढ़ कर सोच रही हूँ कि सच ही तो लिखनीं कुंद हो रही है । सुंदर रचना ।

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  4. वाह! कविता है या मंदाकिनी का मधुरिम प्रवाह!!

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  5. हो समर्पित रचयिता बस

    नींद त्यागेगी कभी तो

    अल्प सा अवकाश मांगे

    मोह निद्रा है अभी तो

    तोड़ कर के कुंद पहरे

    बह चले शीतल झड़ी।।
    आप जैसे साहित्य सेवियों की लेखनी हमेंशा जगी रहे।
    हमेशा की तरह बहुत ही अद्भुत एवं लाजवाब सृजन

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