बगुले
कितना धोया बाहर से पर
गूढ़ कलुषिता बैठी भाई
सारी जगती जिसमें रमती
तृष्णा मोह राग की जाई।
कूप कूप में भाँग पड़ी है
मानव का पानी उतर गया
बूँद-बूँद है गरल भरी सी
अंतस चूकी सब भाव दया
देखो चाल बचाना भइया
घाट-घाट पर फैली काई।।
दान धर्म की बातें थोथी
दाँत दिखाने वाले दूजे
छोड़ छाड़ सब गोरखधंधा
देव मानकर उन को पूजे
शुद्धिकरण कर तन का गंगा
मैल मिटा मन का कब पाई।।
धौला पहने बगुले बैठे
हृदय खोह में खोट भरा है
बड़े-बड़े करते सब दावे
लेकिन झूट का मैल धरा है
कितनी बात छुपाना चाहो
बूझ सभी लेती है दाई।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बगुला भगतों की पोल खोलती अत्यंत धारदार अभिव्यक्ति दी।
ReplyDeleteसस्नेह प्रणाम
सादर।
रचना के भावों को समर्थन देती टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ श्वेता, आपकी मोहक प्रतिक्रिया रचना का उपहार है।
Deleteसस्नेह।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २८ जनवरी २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सस्नेह आभार श्वेता पांच लिंक पर आना सदा मैहक होता है।
Deleteमैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
सस्नेह।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (२८-०१ -२०२२ ) को
'शब्द ब्रह्म को मेरा प्रणाम !'(चर्चा-अंक-४३२४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सस्नेह आभार प्रिय अनिता चर्चा मंच पर आना सदा मोहक होता है मेरे लिए।
Deleteमैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
सस्नेह।
सच्ची बात कहती रचना।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका आदरणीय।
Deleteसादर।
वाह
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका आदरणीय।
Deleteसादर।
बहुत पैनेपन से जगती तल के यथार्थ को उद्घाटित करता लाजवाब सृजन ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका मीना जी सराहनीय शब्द गीत को गति प्रदान करते हैं ।
Deleteसस्नेह।
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका आलोक जी।
Deleteसादर।
समसामयिक रचना । चुनाव में तो खास कर सब श्वेतधारी बगुले बने शिकार की तलाश में रहते हैं । बेहतरीन अभिव्यक्ति कुसुम जी ।
ReplyDeleteसही विश्लेषण करती सटीक प्रतिक्रिया से रचना को नव आयाम मिले संगीता जी।
Deleteसस्नेह आभार आपका।
धौला पहने बगुले बैठे
ReplyDeleteहृदय खोह में खोट भरा है
बड़े-बड़े करते सब दावे
लेकिन झूट का मैल धरा है
कितनी बात छुपाना चाहो
बूझ सभी लेती है दाई।।
लाजवाब सीजन!
एकदम सही कहा आपने
कपड़े एकदम सफेद है पर इरादों गंदे हैं और चरित्र परइतने दाग और धब्बे लगे हैं जिन्हें साफ करना नामुमकिन है!
रचना के भावों की गूढ़ता तक पहुंच कर आपने सटीक विश्लेषण किया प्रिय मनीषा।
Deleteलेखन को सार्थकता देती सुंदर प्रतिक्रिया आपकी।
सस्नेह आभार।
समसामयिक सार्थक रचना।
ReplyDeleteसस्नेह आभार पम्मी जी, आपकी मोहक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह।
बहुत ही मारक। तब तो चारों ओर बगुले महाराज जी की जयकार हो रही है। अति सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteसमर्थन देते शब्दों से रचना के भाव सार्थक हुए अमृता जी।
Deleteसटीक व्याख्या आज के बगुलों की।
सस्नेह।
बहुत सुन्दर और साहसी रचना कुसुम जी !
ReplyDeleteएक बात याद रखिएगा - बगुला भगतों के दिल का एक्सरे करना गुनाह-ए-अज़ीम है.
सादर आभार आदरणीय! आप के मिज़ाज़ से मिलते भाव है आपको पसंद आए, लेखन सार्थक हुआ।
Deleteरही बात गुनाह-ए-अज़ीम की तो वो तो हो चुका अब रब ही संभाले अपनी नाव।
सादर।
बहुत सुंदर और सार्थक सृजन सखी।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया के लिए।
Deleteसस्नेह।
धौला पहने बगुले बैठे
ReplyDeleteहृदय खोह में खोट भरा है
बड़े-बड़े करते सब दावे
लेकिन झूट का मैल धरा है
कितनी बात छुपाना चाहो
बूझ सभी लेती है दाई।।.. चनावी रणबांकुरों की सटीक अभ्यर्थना ।
विस्तृत व्याख्यात्मक प्रतिपंक्तियाँ आपकी जिज्ञासा जी
Deleteलेखन को संबल मिला।
ढेर सा स्नेह आभार।
सस्नेह।
सत्य कहने का आपका अंदाज़ लाजवाब है ...
ReplyDeleteदाई से कुछ नहीं छुपता है ...
लेखन सार्थक हुआ आ0 नासवा जी आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया से।
Deleteसादर आभार।
दान धर्म की बातें थोथी
ReplyDeleteदाँत दिखाने वाले दूजे
छोड़ छाड़ सब गोरखधंधा
देव मानकर उन को पूजे
शुद्धिकरण कर तन का गंगा
मैल मिटा मन का कब पाई
तन के शुद्धिकरण से मन का मैल मिटाना गंगा के बस में भी नहीं...
बगुलाभक्तों सै सावधान करता लाजवाब नवगीत।
बहुत सही सुधा जी,आपने सटीक भाव रखें रचना के समर्थन में ,लेखन सार्थक हुआ।
ReplyDeleteसस्नेह आभार आपका।