अभिमन्यु वध और सुभद्रा की पीड़ा।
धधक रहा है दावानल सा
दृग सावन लगे बरसने
कैसे मन की दाह बुझेगी
नैना नम लगे तरसने।
माँ का अंतर चाक हुआ है
नस नस जैसे फटी पड़ी
अहो विधाता कब रच डाली
ऐसी ये दुर्दांत घड़ी
आज सुभद्रा की आँखों से
नींद चुराई है किसने ।।
वध करूँ हर एक पामर का
काली जैसा रूप धरूँ
या शिव के तांडव से फिर
सारी भू का नाश करूँ
उस अधमी का नाम बता दो
मुझ सुत हनन किया जिसने।।
सकल विश्व का पालनहारा
विवश कहाँ था दूर खड़ा
उतरा सी कोमल कलिका पर
विपदा का क्यों वज्र पड़ा
प्रखर मार्तण्ड निखर रहा था
लगी मौत फंदा कसने ।।
हाँ मेरी ही गलती कारण
ग्रास मृत्यु का लाल बना
भेद चक्रव्यूह का कैसे
अर्द्ध ज्ञान ही काल बना
क्यों तंद्रा ने चाल चली थी
छा मति पर लूटा उसने।।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'
बेहद हृदयस्पर्शी सृजन सखी।
ReplyDeleteसजीव चित्रण , ऐसे लग रहा है कि पूरा दृश्य सामने उपस्थित हो गया है ।।
ReplyDeleteमन को छूती छायाचित्र जैसी रचना ।
ReplyDeleteवध करूँ हर एक पामर का
ReplyDeleteकाली जैसा रूप धरूँ
या शिव के तांडव से फिर
सारी भू का नाश करूँ
उस अधमी का नाम बता दो
मुझ सुत हनन किया जिसने।।
पुत्र बध पर माता सुभद्रा की तड़प व दुःख का उत्कृष्ट शब्दचित्रण किया है आपने नवगीत के माध्यम से...।
बहुत ही हृदयस्पर्शी एवं मर्मस्पर्शी सृजन।