बहे समसि ऐसे
आखर आखर जोड़े मनवा
आज रचूँ फिर से कविता।
भाव तंरगी ऐसे बहती
जैसे निर्बाधित सविता।
मानस मेरे रच दे सुंदर
कुसमित कलियों का गुच्छा
तार तार ज्यों बुने जुलाहा
जैसे रेशम का लच्छा
कल-कल धुन में ऐसे निकले
लहराती मधुरम सरिता।।
अरुणोदयी लालिमा रक्तिम
अनुराग क्षितिज का प्यारा
झरना जैसे झर झर बहता
शृंगार प्रकृति का न्यारा
सारे अद्भुत रूप रचूँ मैं
बहे वात प्रवाह ललिता ।
निशि गंधा की सौरभ लिख दूं
भृंग का श्रुतिमधुर कलरव
स्नेह नेह की गंगा बहती
उपकारी का ज्यों आरव
समसि रचे रचना अति पावन
रात दिन की चले चलिता।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बहुत सुन्दर सराहनीय
ReplyDeleteबहुत सुंदर सारगर्भित रचना,कविता के मनोरम रूप को निखारती अनुपम कविता ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत।
ReplyDeleteभावों की गहन अभिव्यक्ति।
वाह बेहद खूबसूरत गीत सखी👌👌👌👌
ReplyDeleteमानस मेरे रच दे सुंदर
ReplyDeleteकुसमित कलियों का गुच्छा
तार तार ज्यों बुने जुलाहा
जैसे रेशम का लच्छा
कल-कल धुन में ऐसे निकले
लहराती मधुरम सरिता।।
वाह!!!
बहुत ही लाजवाब सृजन।
आपकी रचनाएं मंत्रमुग्ध करती हैं । अप्रतिम सृजन कुसुम जी ।
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