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Sunday, 21 March 2021

बहे समसि ऐसे


 बहे समसि ऐसे


आखर आखर जोड़े मनवा 

आज रचूँ फिर से कविता।

भाव तंरगी ऐसे बहती 

जैसे निर्बाधित सविता।


मानस मेरे रच दे सुंदर 

कुसमित कलियों का गुच्छा

तार तार ज्यों बुने जुलाहा 

जैसे रेशम का लच्छा

कल-कल धुन में ऐसे निकले

लहराती मधुरम सरिता।।


अरुणोदयी लालिमा रक्तिम 

अनुराग क्षितिज का प्यारा 

झरना जैसे झर झर बहता

शृंगार प्रकृति का न्यारा 

सारे अद्भुत रूप रचूँ मैं 

बहे वात प्रवाह ललिता ।


निशि गंधा की सौरभ लिख दूं 

भृंग का श्रुतिमधुर कलरव 

स्नेह नेह की गंगा बहती 

उपकारी का ज्यों आरव 

समसि रचे रचना अति पावन 

 रात दिन की चले चलिता।।


         कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर सराहनीय

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  2. बहुत सुंदर सारगर्भित रचना,कविता के मनोरम रूप को निखारती अनुपम कविता ।

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  3. बहुत बढ़िया रचना।

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  4. बहुत सुन्दर गीत।
    भावों की गहन अभिव्यक्ति।

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  5. वाह बेहद खूबसूरत गीत सखी👌👌👌👌

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  6. मानस मेरे रच दे सुंदर
    कुसमित कलियों का गुच्छा
    तार तार ज्यों बुने जुलाहा
    जैसे रेशम का लच्छा
    कल-कल धुन में ऐसे निकले
    लहराती मधुरम सरिता।।
    वाह!!!
    बहुत ही लाजवाब सृजन।

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  7. आपकी रचनाएं मंत्रमुग्ध करती हैं । अप्रतिम सृजन कुसुम जी ।

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