एक नादानी (काव्य कथा)
कहीं एक तलैया के किनारे
एक छोटा सा आशियाना
फजाऐं महकी महकी
हवायें बहकी बहकी
समा था मदहोशी का
हर आलम था खुशी का
न जगत की चिंता
ना दुनियादारी का झमेला
बस दो जनों का जहान था
वह जाता शहर लकड़ी बेचता
कुछ जरूरत का सामान खरीदता
लौट घर को आता
वह जब भी जाता
वह पीछे से कुछ बैचेन रहती
जैसे ही आहट होती
उस के पदचापों की
वह दौड द्वार खोल
मधुर मुस्कान लिये
आ खडी होती
लेकर हाथ से सब सामान
एक गिलास में पानी देती
गर्मी होती तो पंखा झलती
हुलस हुलस सब बातें पूछती
सुन कर शहर की रंगीनी
उड कर पहुंचती उसी दायरे में
जीवन बस सहज बढा जा रहा था
एक दिन जिद की उसने भी
साथ चलने की
उसने लाख रोका न मानी
दोनो चल पडे
शहर में खूब मस्ती की
चाट, झूले, चाय-पकौड़े
स्वतंत्र सी औरतें
उन्मुक्त इधर उधर उडती
बस वही मन भा गया
मन शहर पर आ गया
नही रहना उस विराने में
इसी नगर में रहना
था प्रेम अति गहरा
पति रोक न पाया
उसे लेकर शहर आया
किसी ठेकेदार को सस्ते में
गांव का मकान बेचा
शहर में कुछ खरीद न पाया
किराये पर एक कोठरी भर आई
हाथ में धेला न पाई
काम के लिये भटकने लगा
भार ठेला जो मिलता करता
पेट भरने जितना भर
मुश्किल से होता
फिर कुछ संगत बिगडी
दारू की लत लगी
अब करता ना कमाई
भुखा पेट, पीने को चाहिऐ पैसा
पहले तूं-तूं मैं-मैं फिर हाथा पाई
आखिर वो मांजने लगी बरतन
घर घर में भरने लगी पानी
जो अपने घर की थी रानी
अपनी नादानी से बनी नौकरानी
ना वो मस्ती के दिन रात
और आँख में था पानी
ये एक छोटी नादान कहानी।
कुसुम कोठारी ।
कहीं एक तलैया के किनारे
एक छोटा सा आशियाना
फजाऐं महकी महकी
हवायें बहकी बहकी
समा था मदहोशी का
हर आलम था खुशी का
न जगत की चिंता
ना दुनियादारी का झमेला
बस दो जनों का जहान था
वह जाता शहर लकड़ी बेचता
कुछ जरूरत का सामान खरीदता
लौट घर को आता
वह जब भी जाता
वह पीछे से कुछ बैचेन रहती
जैसे ही आहट होती
उस के पदचापों की
वह दौड द्वार खोल
मधुर मुस्कान लिये
आ खडी होती
लेकर हाथ से सब सामान
एक गिलास में पानी देती
गर्मी होती तो पंखा झलती
हुलस हुलस सब बातें पूछती
सुन कर शहर की रंगीनी
उड कर पहुंचती उसी दायरे में
जीवन बस सहज बढा जा रहा था
एक दिन जिद की उसने भी
साथ चलने की
उसने लाख रोका न मानी
दोनो चल पडे
शहर में खूब मस्ती की
चाट, झूले, चाय-पकौड़े
स्वतंत्र सी औरतें
उन्मुक्त इधर उधर उडती
बस वही मन भा गया
मन शहर पर आ गया
नही रहना उस विराने में
इसी नगर में रहना
था प्रेम अति गहरा
पति रोक न पाया
उसे लेकर शहर आया
किसी ठेकेदार को सस्ते में
गांव का मकान बेचा
शहर में कुछ खरीद न पाया
किराये पर एक कोठरी भर आई
हाथ में धेला न पाई
काम के लिये भटकने लगा
भार ठेला जो मिलता करता
पेट भरने जितना भर
मुश्किल से होता
फिर कुछ संगत बिगडी
दारू की लत लगी
अब करता ना कमाई
भुखा पेट, पीने को चाहिऐ पैसा
पहले तूं-तूं मैं-मैं फिर हाथा पाई
आखिर वो मांजने लगी बरतन
घर घर में भरने लगी पानी
जो अपने घर की थी रानी
अपनी नादानी से बनी नौकरानी
ना वो मस्ती के दिन रात
और आँख में था पानी
ये एक छोटी नादान कहानी।
कुसुम कोठारी ।
रचना के माध्यम से संवेदनशील वोशय को लिखा है आपने ...
ReplyDeleteकैसे भुलावे में इतना बड़ा दोखा खुद से ही कर जाते हैं हम ...
सटीक व्याख्यात्मक टिप्पणी के लिये बहुत सा आभार आदरणीय नासवा जी।
Deleteबहुत हृदयस्पर्शी काव्य कथा ...., शहरों की चकाचौंध में डूब कर भोले-भाले लोग स्वयं ही अपना जीवन खराब कर बैठते हैं ।संवेदनशील विषय पर सुन्दर सृजन कुसुम जी ।
ReplyDeleteसही है मीना जी चकाचौंध के भुलावे में ही विनाश का निमंत्रण है।
Deleteबहुत सुंदर प्रतिक्रिया आपकी आपके स्नेह की सदा अनुग्रहित रहूंगी।
स्नेह आभार।
बेहद हृदयस्पर्शी रचना ज्यादा की लालसा अक्सर दुःख का कारण बन जाता है।बहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteहां सखी,
Deleteआधी छोड़ पुरी को ध्यावे
आधी मिले न पुरी पावे
सस्नेह आभार समर्थन के लिये।
घर घर में भरने लगी पानी
ReplyDeleteजो अपने घर की थी रानी
अपनी नादानी से बनी नौकरानी
ना वो मस्ती के दिन रात
और आँख में था पानी
ये एक छोटी नादान कहानी.....बहुत हृदयस्पर्शी काव्य कथा,
लालसा कब मजबूरी का रुप धारण कर लेती पता नहीं चलता
सखी आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया से मन खुश हुवा और रचना सार्थक।
Deleteसदा स्नेह बनाये रखें।
आभार हृदय से।
बहुत सुंदर रचना कुसुम जी ... बधाई
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपकी प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया का ।
Deleteजी सादर आभार।
ReplyDeleteवाह्ह्ह.. दी शिक्षा प्रद कथा काव्य...कितनी सुगढ़या से आपने शब्दजाल बुना है दी..लाज़वाब👌
ReplyDeleteसस्नेह आभार प्रिय श्वेता, रचना सार्थक हुई ।
Deleteवाह!!कुसुम जी ,हृदयस्पर्शी , शिक्षाप्रद रचना ।
ReplyDeleteआपको पसंद आई शुभा जी मेरा लिखना सार्थक हुवा।
Deleteसस्नेह आभार ।
बहुत ही सुन्दर, शिक्षाप्रद कथाकाव्य....
ReplyDeleteशहरीपन की चकाचौंध का ही नतीजा है गाँववालों का पलायन... गाँव वीरान और सुनसान पड़े हैं घर पर जाले लगे हैं खेत खलिहान बंजर छोड़ शहरों में दूसरों की चाकरी करना भा गया है ऐसे भोलेभाले युवाओं को...
बहुत लाजवाब रचना ...बधाई एवं शुभकामनाएं कुसुम जी !
आपकी व्याख्यात्मक विवेचना से रचना के आंतरिक भाव स्पष्ट हुवे सखी।
Deleteबहुत बहुत आभार सार्थक टिप्पणी के लिये।
सस्नेह ।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
७ जनवरी २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सस्नेह आभार श्वेता आप ने खोज ही ली मेरी रचना ढेर सा स्नेह ।
Deleteबहुत मार्मिक कुसुम जी !
ReplyDeleteक्या पता महा-प्राण निराला ने अपनी अमर रचना -
'वह तोडती पत्थर, इलाहाबाद के पथ पर'
ऐसा ही कोई हादसा देख कर लिखी हो.
बहुत सा आभार सर आपकी प्रतिक्रिया की सदैव प्रतिक्षा रहती है । सटीट सा लेखन आपका सदा मार्ग दर्शन करता है फिर से सादर आभार ।
ReplyDeleteरही निराला जी की बात तो सर वो तो एक महान साहित्यकार कार थे भुमि से जुड़े,वैसे भी हर यथार्थ वादी रचना का आधार हमारे आस पास की घटाऐं हैती है कोरी कल्पना नही बस शब्द रूप और अभिव्यक्त करने का तरीका भिन्न।
सादर
सुन्दर संवेदनशील काव्य कथा ,मन को झकझोर कर प्रश्न खड़े करती हैं
ReplyDeleteजो अपने घर की थी रानी
अपनी नादानी से बनी नौकरानी
ना वो मस्ती के दिन रात
और आँख में था पानी
ये एक छोटी नादान कहानी।
जी सादर आभार उत्साह वर्धन के लिये।
Deleteबहुत खूब......... कुसुम जी ,सादर स्नेह
ReplyDeleteढेर सारा स्नेह कामिनी जी
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