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Sunday, 11 November 2018

मन मासूम परिंदा

.               मन की गति

मन एक मासूम परिंदा
स्व उडान से घायल होता।

स्वयं भोगता अवसाद
किसीको फर्क न पडता।

कैसी धारणा बनाता
किसीके बस ना रहता।

जब भी जगती है तृष्णा
खुद ही सुलगता जाता।

अपनो से भी द्वेष पालता
स्वयं को पीड़ा पहुंचाता।

मन एक घायल परिंदा।

      कुसुम कोठारी ।

13 comments:

  1. जी प्रिय कुसुम बहन -- सही लिखा आपने मन की सारी पीडाएं अपनी है | ज्यादातर इसके दुःख के कारण अपने ही होते हैं | अपनी तृष्णा इसे बहुत मर्मान्तक अनुभवों से गुजारती है | और द्वेष तो इसके लिए जहर के समान है | सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनायें |

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    1. रेनू बहन आपकी प्रतिक्रिया पा कर कितनी खुशी मिलती है मैं बता नही पाती, स्नेह सिक्त, विशिष्टता और विस्तृत व्याख्यात्मक आप के उद्गार नव उत्साह का संचार कर देते हैं और महसूस करती हूं कि हां मैं लिख सकती हूं सदा स्नेह बनाये रखें।
      सस्नेह।

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    2. सुस्वागतम बहन -- आप की प्रतिभा अत्यंत सराहनीय है |

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  2. अति सुन्दर और सटीक लेखन मीता ..
    स्व से ही घायल हुआ
    स्व का नहीं है भान
    मीता सत्य लिख दिये
    सब के मन के भाव

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    1. मीता सस्नेह!
      आपकी सटीक व्याख्या और भावों को समर्थन देती प्रतिक्रिया रचना को सार्थकता दे गई ।

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  3. अपनो से भी द्वेष पालता
    स्वयं को पीड़ा पहुंचाता। बिल्कुल सही कहा आपने बहुत सुंदर रचना सखी

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    1. प्रिय सखी आभार आपका आपकी प्रतिक्रिया सदा लिखने की प्रेरणा बनती है।
      सस्नेह

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  4. सत्य है मन स्वयम से घायल होता है।सुन्दर रचना

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    1. सादर दी, आपको ब्लॉग पर देख बहुत खुशी हुई
      आते रहियेगा दी।

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  5. man ek ghayal parinda ...
    सच ही तो है ... कहीं चैन नहीं मिल पता इसे ... स्वयं से उलझा ... ग्घयल परिंदा ...
    गहरी रचना ....

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    1. सादर आभार नासवा जी सदा उत्साह वर्धन करती है आपकी प्रतिक्रिया।

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  6. सही तो है मन ही सब पीडाओं का मूल है

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    1. जी सादर आभार आपकी प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया का

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