मन मासूम परिंदा
. मन की गति
मन एक मासूम परिंदा
स्व उडान से घायल होता।
स्वयं भोगता अवसाद
किसीको फर्क न पडता।
कैसी धारणा बनाता
किसीके बस ना रहता।
जब भी जगती है तृष्णा
खुद ही सुलगता जाता।
अपनो से भी द्वेष पालता
स्वयं को पीड़ा पहुंचाता।
मन एक घायल परिंदा।
कुसुम कोठारी ।
जी प्रिय कुसुम बहन -- सही लिखा आपने मन की सारी पीडाएं अपनी है | ज्यादातर इसके दुःख के कारण अपने ही होते हैं | अपनी तृष्णा इसे बहुत मर्मान्तक अनुभवों से गुजारती है | और द्वेष तो इसके लिए जहर के समान है | सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनायें |
ReplyDeleteरेनू बहन आपकी प्रतिक्रिया पा कर कितनी खुशी मिलती है मैं बता नही पाती, स्नेह सिक्त, विशिष्टता और विस्तृत व्याख्यात्मक आप के उद्गार नव उत्साह का संचार कर देते हैं और महसूस करती हूं कि हां मैं लिख सकती हूं सदा स्नेह बनाये रखें।
Deleteसस्नेह।
सुस्वागतम बहन -- आप की प्रतिभा अत्यंत सराहनीय है |
Deleteअति सुन्दर और सटीक लेखन मीता ..
ReplyDeleteस्व से ही घायल हुआ
स्व का नहीं है भान
मीता सत्य लिख दिये
सब के मन के भाव
मीता सस्नेह!
Deleteआपकी सटीक व्याख्या और भावों को समर्थन देती प्रतिक्रिया रचना को सार्थकता दे गई ।
अपनो से भी द्वेष पालता
ReplyDeleteस्वयं को पीड़ा पहुंचाता। बिल्कुल सही कहा आपने बहुत सुंदर रचना सखी
प्रिय सखी आभार आपका आपकी प्रतिक्रिया सदा लिखने की प्रेरणा बनती है।
Deleteसस्नेह
सत्य है मन स्वयम से घायल होता है।सुन्दर रचना
ReplyDeleteसादर दी, आपको ब्लॉग पर देख बहुत खुशी हुई
Deleteआते रहियेगा दी।
man ek ghayal parinda ...
ReplyDeleteसच ही तो है ... कहीं चैन नहीं मिल पता इसे ... स्वयं से उलझा ... ग्घयल परिंदा ...
गहरी रचना ....
सादर आभार नासवा जी सदा उत्साह वर्धन करती है आपकी प्रतिक्रिया।
Deleteसही तो है मन ही सब पीडाओं का मूल है
ReplyDeleteजी सादर आभार आपकी प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया का
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