उलझन से निकलो
मन की अगणित परतों मे दबी ढकी आग
कभी सुलगती कभी मद्धम कभी धीमी फाग।
यूं न जलने दो नाहक इस तेजस अनल को
सेक लो हर लौ पर जीवन के पल-पल को।
यूं न बनाओ निज के अस्तित्व को नीरस
पकालो आत्मीयता की मधुर पायस।
गहराई तक उतर के देखो सत्य का दर्पण
निज मन की कलुषिता का कर दो तर्पण ।
बस उलझन का कोहरा ढकता उसे कुछ काल
मन मंथन का गरल पी शिव बन, उठा निज भाल।
कुसुम कोठारी।
मन की अगणित परतों मे दबी ढकी आग
कभी सुलगती कभी मद्धम कभी धीमी फाग।
यूं न जलने दो नाहक इस तेजस अनल को
सेक लो हर लौ पर जीवन के पल-पल को।
यूं न बनाओ निज के अस्तित्व को नीरस
पकालो आत्मीयता की मधुर पायस।
गहराई तक उतर के देखो सत्य का दर्पण
निज मन की कलुषिता का कर दो तर्पण ।
बस उलझन का कोहरा ढकता उसे कुछ काल
मन मंथन का गरल पी शिव बन, उठा निज भाल।
कुसुम कोठारी।
गहराई तक उतर के देखो सत्य का दर्पण
ReplyDeleteनिज मन की कलुषिता का कर दो तर्पण ।
बेहतरीन रचना कुसुम जी
बहुत सा आभार प्रिय सखी ।
Deleteबहुत ही सुंदर रचना,कुसुम दी।
ReplyDeleteसस्नेह आभार बहना ।
Deleteबहुत ख़ूब....बहुत ही सुंदर रचना
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १४ अक्टूबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जी सस्नेह आभार ।अवश्य उपस्थिति समझे।
Deleteसादर।
उम्दा रचना.
ReplyDeleteगहराई तक उतर कर देखो सत्य का दर्पण
वाह
जी सादर आभार आपकी प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया का रोहितास जी।
Deleteउम्दा रचना सखी
ReplyDeleteबहुत सा आभार सखी।
Deleteवाह!!कुसुम जी ,बेहतरीन रचना!
ReplyDeleteशुभा जी आपको सस्नेह आभार ।
Deleteबहुत सुन्दर कविता ! लेकिन सत्य का दर्पण? झूठ के बाज़ार में, फ़रेब के व्यापार में, हरजाई के प्यार में और नेता के व्यवहार में, इसकी कहाँ आवश्यकता पड़ने वाली है कुसुम जी? इस से तो अच्छा है दर्पण वाला अपने दर्पण अंधों की नगरी में जाकर बेच आए.
ReplyDeleteगहराई तक उतर के देखो सत्य का दर्पण
ReplyDeleteनिज मन की कलुषिता का कर दो तर्पण ।
बहुत सुन्दर ....लाजवाब.....
वाह!!!!