उलझन और उलझती जाये
शांत निर्झरिणी में गर कंकर मारो
दो क्षण विचलित हो ,
फिर शांत हो जाती है ।
मन के शांत सरोवर में
चोट अगर कोई लग जाये
व्याकुल हो मन बावरा ,
स्वयं को ही न समझ पाये
धागे सोचों के बल खाये
जितनी भी चाहें सुलझाओ
उलझन और उलझती जाये ।
पर ऐसे में भी अक्सर ,
अपने अस्तित्व का अहसास,
सदा सुखद सा लगता है
सच मन ही तो है,
मन की थाह कहाँ कोई पाये ।
कुसुम कोठारी ।
शांत निर्झरिणी में गर कंकर मारो
दो क्षण विचलित हो ,
फिर शांत हो जाती है ।
मन के शांत सरोवर में
चोट अगर कोई लग जाये
व्याकुल हो मन बावरा ,
स्वयं को ही न समझ पाये
धागे सोचों के बल खाये
जितनी भी चाहें सुलझाओ
उलझन और उलझती जाये ।
पर ऐसे में भी अक्सर ,
अपने अस्तित्व का अहसास,
सदा सुखद सा लगता है
सच मन ही तो है,
मन की थाह कहाँ कोई पाये ।
कुसुम कोठारी ।
सच मन ही तो है,
ReplyDeleteमन की थाह कहाँ कोई पाये...
सुंदर भाव समायोजन ....
जी बहुत सा आभार पुरुषोत्तम जी आपकी प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया का।
Deleteमन के शांत सरोवर में
ReplyDeleteचोट अगर कोई लग जाये
व्याकुल हो मन बावरा ,
स्वयं को ही न समझ पाये बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना
सस्नेह आभार सखी आपकी प्रतिक्रिया उत्साह वर्धक, सदा अनुराग जताती है ।
Deleteअपने अस्तित्व का अहसास,
ReplyDeleteसदा सुखद सा लगता है
अस्तित्व का एहसास कराती सुंदर रचना
अपने अस्तित्व का एहसास सुखद ही होता है चाहे परिस्थिति कितनी ही विपरीत क्यों न हो,बहुत बहुत स्नेह आभार अभिलाषा बहना ।
Deleteउलझनों में उलझकर
ReplyDeleteउलझते ही रह गए
इस कदर उलझा ये दिल
हम उलझनों के हो गए
लाजवाब रचना सखी।बहुत खूब।
वाह क्या कहने सखी आपकी प्रतिक्रिया खुद एक सुंदर रचना है बहुत सा आभार आपके स्नेह आगमन का।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १४ अक्टूबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
ओ आश्चर्य श्वेता!!
Deleteआना तो निश्चित है ।
बहुत उम्दा
ReplyDeleteबहुत सा आभार लोकेश जी ।
ReplyDeleteठहरे पानी में कंकर मारकर देखो
ReplyDeleteवो हलचल जो पैदा होती है वो जब किनारों तक आ जाती है तब पानी शांत होता है.ठीक यही दशा हमारे व्याकुल मन की रहती है.
मन चंचल होता है चंचलता ही उसकी प्रकृति है यानी बहता ही रहता है किसी नदी के पानी की तरह तो चोट का असर आराम से झेल लेता है लेकिन किसी ने मन को शांत बना के रखा है ठीक किसी ठहरे पानी की तरह तो वो छोटी सी चोट से बहुत ज्यादा प्रभावित हो जाता है. इसीलिए शांत आदमी का गुस्सा सबसे खतरनाक होता है.
इसमें द्वंद्व का भाव है लेकिन ये सत्य है.
आपकी रचना लाजवाब है.
शुक्रिया रोहितास जी आपने इतनी सुंदर व्याख्या की है नीर और मन की, जो प्रभावशाली ही नही सटीक भी है। बहुत बहुत आभार आपका सक्रिय प्रतिक्रिया से रचनाकार को सदा कुछ अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है सदा अनुग्रह बनाया रखें ।
Deleteसादर।
सुन्दर रचना बहन
ReplyDeleteसस्नेह आभार बहन आपका सदा स्नेह बनाये रखें ।
Deleteवाह!!बहुत उम्दा ,भावपूर्ण रचना .
ReplyDeleteसस्नेह आभार सखी शुभा जी आप प्रबुद्ध लोगो की उपस्थिति रचना का मान है।
Deleteअपने अस्तित्व का अहसास,
ReplyDeleteसदा सुखद सा लगता है
सच मन ही तो है,
मन की थाह कहाँ कोई पाये ।
मन की थाह पाना बहुत मुश्किल है।जिसने थाह पा ली बस सुलझ गया....
बहुत सुन्दर..
वाह!!!!
सस्नेह आभार सुधा जी ।
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