गांधी जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं
राष्ट्रपिता को संबोधन , क्षोभ मेरे मन का :-
बापू कहां बैठे हो आंखें छलकाये
क्या ऐसे भारत का सपना था?
बेबस बेचारा पस्त थका - थका
इंसानियत सिसक रही
प्राणी मात्र निराश दुखी
गरीब कमजोर निःसहाय
हर तरफ मूक हाहाकार
कहारती मानवता,
झुठ फरेब
रोता हुवा बचपन,
डरा डरा भविष्य
क्या इसी आजादी का
चित्र बनाया था
अब तो छलकाई
आंखों से रो दो
जैसे देश रो रहा है।
कुसुम कोठारी।
आज दो अक्टूबर, मेरे विचार में गांधी।
मैं किसी को संबोधित नही करती बस अपने विचार रख रही हूं, प्रथम! इतिहास हमेशा समय समय पर लिखने वाले की मनोवृत्ति के हिसाब से बदलता रहा है, कभी इतिहास को प्रमाणिक माना जाता था आज इतिहास की प्रमाणिकता पर सबसे बड़ा प्रश्न चिंह है।
रही महापुरुषों पर आक्षेप लगाने की तो हम (हर कुछ भी लिखने वाला बिना सोचे) आज यही कर रहे हैं, चार पंक्तियाँ में किसी को भी गाली निकाल कर पढने वालों को भ्रमित और दिशा हीन कर अपने को तीस मार खाँ समझते हैं, ज्यादा कुछ आनी जानी नही, बस कुछ भी परोसते हैं, और अपने को क्रांतिकारी विचार धारा वाला दिखाते हैं, देश के लिये कोई कुछ नही कर रहा, बस बैठे बैठे समय बिताने का शगल।
हम युग पुरुष महात्मा गाँधी को देश का दलाल कहते हैं, जिस व्यक्ति ने सारा जीवन देश हित अर्पण किया,
सोच के बताओ देश को बेच कर क्या उन्होंने महल दो महले बनवा लिये, या अपनी पुश्तों के लिये संपत्ति का अंबार छोड गये, एक धोती में रहने वाले ने अपने आह्वान से देश को इस कौने से उस कौने तक जोड दिया, देश एक जुट हुवा था तो एक इसी व्यक्तित्व के कारण उस नेता ने देश प्रेम की ऐसी लहर चलाई थी कि हर गली मुहल्ले मे देश हित काम करने वाले नेता पैदा हुवे और अंग्रेजों से विरोध की एक सशक्त लरह बनी, हर तरफ अंदर से विरोध सहना अंग्रेजों के वश में नही रहा, और जब उनके लिऐ भारत में रूकना असंभव हो गया।
कहते हैं, वो चाहते तो भगतसिंह की फांसी रूकवा सकते थे ऐसा कहने वालो की बुद्धि पर मुझे हंसी आती है, जैसे कानून उनकी बपोती था? वो भी अंग्रेजी सत्ता में, और वो अपनी धाक से रूकवा देते, ऐसा संभव है तो हम आप करोड़ों देशवासी मिल कर निर्भया कांण्ड में एक जघन्य आरोपी को सजा तक नही दिला सके कानून हमारा देश हमारा और हम लाचार हैं याने हम जो न कर पायें वो लाचारी और उन से जो न हो पाया वो अपराध अगर दो टुकड़े की शर्त पर भी आजादी मिली तो समझो सही छुटे वर्ना न जाने और कब तक अंग्रेजों के चुगल में रहते
और बाद मे देश को टुकड़ो में तोड़ ते रहते पहले भी राजतंत्र मे देश टुकड़ो मे बंटा सारे समय युद्ध में उलझा रहता था कुछ करने की ललक है तो आज भी देश की अस्मिता को बचाने का जिम्मा उठाओ कुछ तो कर दिखाओ सिर्फ हुवे को कब तक कोसोगे
जितना मिला वो तो अपना है उसे तो संवारो।
रही आज की बात तो हर बार यही होता है बातें करने और देश चलाने मे जमीन आसमान का फर्क होता है, संविधान के अंतर्गत कानून के तहत ही महत्वपूर्ण निर्णय लिये जा सकते है कोई अराजकता है, जो प्रधान नायक कुछ भी निर्णय ले और फौजी शासन की तरह थोप दे! हर क्षेत्र में।
संविधान की किसी भी धारा में संशोधन के लिये काफी समय लगता है, कोई खेल नही है, जो होना है होगा, तो कानून और संविधान के अंतर्गत, चाहे वो कानून कभी बने हो और उन के पीछे क्या उद्देश्य रहे हो, पर आज उन मे आमूलचूल परिवर्तन के लिए कफी जद्दोजहद करनी होती है।
मैं अहिंसा की समर्थक हूं, पर मै भी हर अन्याय के विरुद्ध पुरी तरह क्रांतिकारी विचार धारा रखती हूं, मैं सभी क्रांतिकारियों को पूर्ण आदर और सम्मान के साथ आजादी प्राप्ति का महत्वपूर्ण योगदाता मानती हूं।
पर गांधी को समझने के लिये एक बार गांधी की दृष्टि से गांधी को देखिये जिस महा मानव ने जादू से नही अपनी मेहनत, त्याग, देश प्रेम, अहिंसा और दृढ़ मनोबल से सारे भारत को एक सूत्र मे बांधा था भावनाओं से, ना कि डंडे से, और जो ना उससे पहले कभी हुवा ना बाद में।
मै कहीं भी किसी पार्टी के समर्थन और विरोध में नही बल्कि एक चिंतन शील भारतीय के नाते ये सब लिख रही हूं।
कुसुम कोठारी
जय हिंद।।
राष्ट्रपिता को संबोधन , क्षोभ मेरे मन का :-
बापू कहां बैठे हो आंखें छलकाये
क्या ऐसे भारत का सपना था?
बेबस बेचारा पस्त थका - थका
इंसानियत सिसक रही
प्राणी मात्र निराश दुखी
गरीब कमजोर निःसहाय
हर तरफ मूक हाहाकार
कहारती मानवता,
झुठ फरेब
रोता हुवा बचपन,
डरा डरा भविष्य
क्या इसी आजादी का
चित्र बनाया था
अब तो छलकाई
आंखों से रो दो
जैसे देश रो रहा है।
कुसुम कोठारी।
आज दो अक्टूबर, मेरे विचार में गांधी।
मैं किसी को संबोधित नही करती बस अपने विचार रख रही हूं, प्रथम! इतिहास हमेशा समय समय पर लिखने वाले की मनोवृत्ति के हिसाब से बदलता रहा है, कभी इतिहास को प्रमाणिक माना जाता था आज इतिहास की प्रमाणिकता पर सबसे बड़ा प्रश्न चिंह है।
रही महापुरुषों पर आक्षेप लगाने की तो हम (हर कुछ भी लिखने वाला बिना सोचे) आज यही कर रहे हैं, चार पंक्तियाँ में किसी को भी गाली निकाल कर पढने वालों को भ्रमित और दिशा हीन कर अपने को तीस मार खाँ समझते हैं, ज्यादा कुछ आनी जानी नही, बस कुछ भी परोसते हैं, और अपने को क्रांतिकारी विचार धारा वाला दिखाते हैं, देश के लिये कोई कुछ नही कर रहा, बस बैठे बैठे समय बिताने का शगल।
हम युग पुरुष महात्मा गाँधी को देश का दलाल कहते हैं, जिस व्यक्ति ने सारा जीवन देश हित अर्पण किया,
सोच के बताओ देश को बेच कर क्या उन्होंने महल दो महले बनवा लिये, या अपनी पुश्तों के लिये संपत्ति का अंबार छोड गये, एक धोती में रहने वाले ने अपने आह्वान से देश को इस कौने से उस कौने तक जोड दिया, देश एक जुट हुवा था तो एक इसी व्यक्तित्व के कारण उस नेता ने देश प्रेम की ऐसी लहर चलाई थी कि हर गली मुहल्ले मे देश हित काम करने वाले नेता पैदा हुवे और अंग्रेजों से विरोध की एक सशक्त लरह बनी, हर तरफ अंदर से विरोध सहना अंग्रेजों के वश में नही रहा, और जब उनके लिऐ भारत में रूकना असंभव हो गया।
कहते हैं, वो चाहते तो भगतसिंह की फांसी रूकवा सकते थे ऐसा कहने वालो की बुद्धि पर मुझे हंसी आती है, जैसे कानून उनकी बपोती था? वो भी अंग्रेजी सत्ता में, और वो अपनी धाक से रूकवा देते, ऐसा संभव है तो हम आप करोड़ों देशवासी मिल कर निर्भया कांण्ड में एक जघन्य आरोपी को सजा तक नही दिला सके कानून हमारा देश हमारा और हम लाचार हैं याने हम जो न कर पायें वो लाचारी और उन से जो न हो पाया वो अपराध अगर दो टुकड़े की शर्त पर भी आजादी मिली तो समझो सही छुटे वर्ना न जाने और कब तक अंग्रेजों के चुगल में रहते
और बाद मे देश को टुकड़ो में तोड़ ते रहते पहले भी राजतंत्र मे देश टुकड़ो मे बंटा सारे समय युद्ध में उलझा रहता था कुछ करने की ललक है तो आज भी देश की अस्मिता को बचाने का जिम्मा उठाओ कुछ तो कर दिखाओ सिर्फ हुवे को कब तक कोसोगे
जितना मिला वो तो अपना है उसे तो संवारो।
रही आज की बात तो हर बार यही होता है बातें करने और देश चलाने मे जमीन आसमान का फर्क होता है, संविधान के अंतर्गत कानून के तहत ही महत्वपूर्ण निर्णय लिये जा सकते है कोई अराजकता है, जो प्रधान नायक कुछ भी निर्णय ले और फौजी शासन की तरह थोप दे! हर क्षेत्र में।
संविधान की किसी भी धारा में संशोधन के लिये काफी समय लगता है, कोई खेल नही है, जो होना है होगा, तो कानून और संविधान के अंतर्गत, चाहे वो कानून कभी बने हो और उन के पीछे क्या उद्देश्य रहे हो, पर आज उन मे आमूलचूल परिवर्तन के लिए कफी जद्दोजहद करनी होती है।
मैं अहिंसा की समर्थक हूं, पर मै भी हर अन्याय के विरुद्ध पुरी तरह क्रांतिकारी विचार धारा रखती हूं, मैं सभी क्रांतिकारियों को पूर्ण आदर और सम्मान के साथ आजादी प्राप्ति का महत्वपूर्ण योगदाता मानती हूं।
पर गांधी को समझने के लिये एक बार गांधी की दृष्टि से गांधी को देखिये जिस महा मानव ने जादू से नही अपनी मेहनत, त्याग, देश प्रेम, अहिंसा और दृढ़ मनोबल से सारे भारत को एक सूत्र मे बांधा था भावनाओं से, ना कि डंडे से, और जो ना उससे पहले कभी हुवा ना बाद में।
मै कहीं भी किसी पार्टी के समर्थन और विरोध में नही बल्कि एक चिंतन शील भारतीय के नाते ये सब लिख रही हूं।
कुसुम कोठारी
जय हिंद।।
बेहतरीन एवं प्रेरणास्पद
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteसस्नेह आभार अभिलाषा जी आपकी ब्लॉग पर उपस्थिति उत्साह वर्धक है, गद्य लेखन में ये मेरा प्रयास भर है ।
Deleteएकदम सही कहा दी आपने,किसी पर भी कीचड़ लीपने के पहले ये भी देखना चाहिए न कि आप कहाँ कहाँ उस गंदगी में सने हुये हैंं।
ReplyDeleteदी तात्कालिक परिस्थिति क्या होगी उसे बिना जाने सोचे बेतुके आक्षेप लगाने वाले सस्ती लोकप्रियता के लोलुप होते है..।
गाँधी जी के विचारों को आडंबरपूर्ण विवेकहीन तर्क दे कर कुतर्क करने वालों से परेशान होने की जरुरत नहीं बल्कि मुँहतोड़ जवाब देने का आवश्यकता है।
बहुत ही विचारोत्तेजक लिखा है दी।
आशा है आगे भी आपके विचारों से अवगत जरुर होंगे हम सब।
बधाई दी क़लम के इस रुप के लिए और शुभकामनाएं बहुत सारी क्योंकि संभावनाएं बहुत सारी है:)
व्याख्यात्मक टिप्पणी के साथ आपकी सक्रिय प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया से मेरे लेखन को सार्थकता का धरातल मिला स्नेही श्वेता, आप बहुत बार मुझे गद्य लिखने के लिये प्रेरित करते रहते हो बस आज लिख दिया और आपकी प्रतिक्रिया पाकर मन बहुत बहुत खुश हुवा।
Deleteमुझे पता है लेखन साधारण है पर मेरे मन के सहज भाव है, कुछ आक्रोश भी।
बस आगे भी उत्साह वर्धन करते रहना तो शायद कभी यात्रा संस्मरण लिख ही दूं।
सस्नेह आभार ।
बहुत सरल किंतु तार्किकता से कथित एवं स्वस्थापित बड़बोलों को आइना दिखाया है आपने। किसी भी महान व्यक्तित्व को कसौटी पर कसना बहुत आसान है। कमियाँ ढूंढ़ने वाले ही आजकल चिंतक कहलाये जाते हैं।
ReplyDeleteदो पंक्तियाँ स्वतः ही निकल पड़ीं हैं कि --
कुछ बात तो ज़रूर होगी मौलिक उनमें
यूँ ही नहीं उन्हें कसौटियों पर कसा जाता है।
आपका काव्य तो उत्कृष्ट होता ही है। लेख भी बड़े सहज रोचक और प्रभावी होते हैं। लिखते रहें।
बहुत सा स्नेह आभार भाई आपकी प्रतिक्रिया मिल गई मेरा लिखना सार्थक हुवा ।
Deleteसच बहुत अच्छा लगा आपकी सुंदर लेखन को सहारा देती प्रतिक्रिया का ,
आपकी दो पंक्तियां सिर्फ पंक्तियाँ नही एक सकारात्मक आधार है मेरे लेखन को
पुनः आभार।
बहुत ही सरल और सुन्दर लेख
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी आपकी प्रतिक्रिया सदा उत्साह वर्धन करती है।
Deleteबहुत सुंदर सत्य प्रदर्शित करती रचना
ReplyDeleteबहुत सा स्नेह आभार सखी आपका, आपने लेख पसंद किया और स्वीकारोक्ति दी ।
Deleteबहुत कुछ दिया कुसुम जी आपने इस लेख के माध्यम से ।एक चिंतनशील अभिव्यक्ति...., बापू को वास्तविक श्रद्धांजलि ।
ReplyDeleteबहुत सा आभार मीना जी आपकी प्रतिक्रिया से मेरे विचारों को और सार्थकता मिली। आपका ब्लॉग पर स्वागत है सदा स्नेह बनाये रखें।
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