Monday, 8 October 2018

उलझन से निकलो

उलझन से निकलो

मन की अगणित परतों मे दबी ढकी आग
कभी सुलगती कभी मद्धम कभी धीमी फाग।

यूं न जलने दो नाहक इस तेजस अनल को
सेक लो हर लौ पर जीवन के पल-पल को।

यूं न बनाओ निज के अस्तित्व को नीरस
पकालो आत्मीयता की मधुर पायस।

गहराई तक उतर के देखो सत्य का दर्पण
निज मन की कलुषिता का कर दो  तर्पण ।

बस उलझन का कोहरा ढकता उसे कुछ काल
मन मंथन का गरल पी शिव बन, उठा निज भाल।

                   कुसुम कोठारी।

15 comments:

  1. गहराई तक उतर के देखो सत्य का दर्पण
    निज मन की कलुषिता का कर दो तर्पण ।
    बेहतरीन रचना कुसुम जी

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    1. बहुत सा आभार प्रिय सखी ।

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  2. बहुत ही सुंदर रचना,कुसुम दी।

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  3. बहुत ख़ूब....बहुत ही सुंदर रचना

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १४ अक्टूबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. जी सस्नेह आभार ।अवश्य उपस्थिति समझे।
      सादर।

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  5. उम्दा रचना.
    गहराई तक उतर कर देखो सत्य का दर्पण
    वाह

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    1. जी सादर आभार आपकी प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया का रोहितास जी।

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  6. वाह!!कुसुम जी ,बेहतरीन रचना!

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    1. शुभा जी आपको सस्नेह आभार ।

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  7. बहुत सुन्दर कविता ! लेकिन सत्य का दर्पण? झूठ के बाज़ार में, फ़रेब के व्यापार में, हरजाई के प्यार में और नेता के व्यवहार में, इसकी कहाँ आवश्यकता पड़ने वाली है कुसुम जी? इस से तो अच्छा है दर्पण वाला अपने दर्पण अंधों की नगरी में जाकर बेच आए.

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  8. गहराई तक उतर के देखो सत्य का दर्पण
    निज मन की कलुषिता का कर दो तर्पण ।
    बहुत सुन्दर ....लाजवाब.....
    वाह!!!!

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