बैरी बदरा अब न बरसना
आवन कह गये हमरे सजना
ना जाने कब आये मोरे मितवा
ना खबरिया , संदेशा ना खतवा
भरी भरी बहे नदिया बहु जोर
हियरा हमार कांपे चले न जोर
जा बरस सौतन की नगरिया
जा ना पावे वहां हमरे सांवरिया
घटा घिरी गरजत है बिजुरिया
डरपत मन ज्यों वन मृग छुनिया ।
कुसुम कोठारी ।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ३१ अगस्त २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
निमंत्रण विशेष :
ReplyDeleteहमारे कल के ( साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक 'सोमवार' १० सितंबर २०१८ ) अतिथि रचनाकारआदरणीय "विश्वमोहन'' जी जिनकी इस विशेष रचना 'साहित्यिक-डाकजनी' के आह्वाहन पर इस वैचारिक मंथन भरे अंक का सृजन संभव हो सका।
यह वैचारिक मंथन हम सभी ब्लॉगजगत के रचनाकारों हेतु अतिआवश्यक है। मेरा आपसब से आग्रह है कि उक्त तिथि पर मंच पर आएं और अपने अनमोल विचार हिंदी साहित्य जगत के उत्थान हेतु रखें !
'लोकतंत्र' संवाद मंच साहित्य जगत के ऐसे तमाम सजग व्यक्तित्व को कोटि-कोटि नमन करता है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteजा बरस सौतन की नगरिया
जा ना पावे वहां हमरे सांवरिया
वाह वाह बहुत ही बेहतरीन रचना
ReplyDeleteघटा घिरी गरजत है बिजुरिया
डरपत मन ज्यों वन मृग छुनिया -
गोरी के मन के व्याकुल भाव और अंदाज ठेठ देशी !!।बहुत ही प्यारी सरल सी रचना प्रिय कुसुम बहन | आपको तीज की हार्दिक शुभकामनायें मिले | आप सपरिवार सानन्द रहें मेरी यही कामना है | हरियाणा में तो सावन की तीज मनती है - भादो की नहीं !!!!!
मन के भावों को सुंदर शब्द ...
ReplyDeleteबैरी बरसात की कितनी मनुहार और प्राकृति का नटखट अन्दाज़ ...
लाजवाब भाव ....