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Wednesday, 5 September 2018

कल तक बरखा मन भावन

कल तक बरखा मनभावन

ये सिर्फ कहानी नही
जगत का गोरख धंधा है
कभी ऊपर कभी नीचे
चलता जीवन का पहिंया है।

कल तक बरखा मन भावन
आज बैरी बन सब बहा रही
टाप टपरे टपक  रहे निरंतर
तृण,फूस झोपड़ी उजाड़ रही।

सिली लकड़ी धुआं धुंआ हो
बुझी बुझी आंखें झुलसा रही
लो आई बैरी बौछार तेजी से
अध जला सा चूल्हा बुझा रही

काम नही मिलता मजदूरों को
बैरी जेबें खाली मुह चिढा रही
बच्चे भुखे,खाली पेट,तपे तन
मजबूर मां बातों से बहला रही।

            कुसुम कोठारी।

6 comments:

  1. मर्मस्पर्शी रचना कुसुम जी

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  2. मन को झिंझोड़ती रचना ..👌👌👌👌

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  3. बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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  4. वाह सखी क्या खूब लिखा 👌👌👌
    अति कभी अच्छी नही होती
    बहुत सार्थक रचना 🙏🙏🙏

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  5. प्रिय कुसुम बहन -- सुविधा सम्पन्न लोगों के लिए वर्षा मनभावन है तो इससे विहीन लोगों के लिए एक आपदा , जो भयावहता लाती है | झोपडी वालों को क्या कभी वर्षा मनमोहक लग सकती है ? बहुत भावपूर्ण और संवेदनशील रचना के लिए हार्दिक बधाई |

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