क्षिति, धरा अडिग, अचल
जब भी हुई चलायमान सचल,
लिया विध्वंस रूप विनाश
काश समझता ये आकाश।
अनंत झुकता चला आता है
वसुधा से लिये मिलन का राग,
वो नही उठना चाहती
ये कोई अभिमान ना विराग।
अचलता धैर्य है वसुंधरा का,
जो सदा जगत का आधार है,
उर्वी को पावनता से स्पर्श दे
गगन में अदम्य लालसा है।
अधोमुखी हो झुकता पुष्कर
एक दृष्टि सीमा तक जा रुकता नभ,
धुमिल उच्छवास उठ सारंग तक
महि का हृदय आडोलित हतप्रभः ।
यही पावन मिलन एक रेख सा
अंकित सुनहरी लाल मनभावन,
बन क्षितिज लुभाता सदा हमें
कितना मनोरम कितना पावन।
कुसुम कोठारी।
आहा बहुत सुंदर
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति
वाह बेहद खूबसूरत रचना
ReplyDeleteयही पावन मिलन एक रेख सा
अंकित सुनहरी लाल मनभावन
बन क्षितिज लुभाता सदा हमे
कितना मनोरम कितना पावन।👌👌
धरा अडिग है तभी तो जीवन चलायमान है ... स्थिर है वसुधा अचल है ...
ReplyDeleteसुंदर भावपूर्ण रचना ...
वाह !!!बहुत सुन्दर रचना। लाजवाब भाव।
ReplyDeleteबहुत सारी शुभकामनाएं
वाह बेहद खूबसूरत रचना
ReplyDeleteबहुत सटीक लेखन
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १७ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सरस मधुर शब्दावली और क्षितिज की सुन्दरतम परिभाषा !!!! प्रिय कुसुम बहन इससे बेहतर कोई क्षितिज को क्या परिभाषित कर सकता है ? सुंदर लेखन के लिए हार्दिक बधाई बहन |
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ReplyDeleteयही पावन मिलन एक रेख सा
अंकित सुनहरी लाल मनभावन
बन क्षितिज लुभाता सदा हमे
कितना मनोरम कितना पावन।
बहुत ही खूबसूरत रचना
वाह!!!
अनंत झुकता चला आता है
ReplyDeleteवसुधा से लिये मिलन का राग
वो नही उठना चाहती
ये कोई अभिमान ना विराग।
अत्यंत गूढ़ अर्थ संनिहित किए हुए, सुंदर शब्दावली से सजी इस रचना के लिए बधाई।
बहुत बहुत शानदार
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