गाँव बुलाते हैं
खिलखिलाते झुरमटों में
लौट के कुछ गीत गाओ
है बसेरा यह तुम्हारा
छोड़ के इसको न जाओ।
रिक्त डेरा शून्य गलियाँ
पीपली संताप ओढ़े
खाट खुड़खुड़ रो रही है
इस बिछावन कौन पोढ़े
पाथ गाँवों के पुकारे
हे पथिक अब लौट आओ।
माँग सी चौपाल सूनी
भोगती वैधव्य पीड़ा
वृद्ध जन आँसू बहाते
कौन ले कर्तव्य बीड़ा
पुत्र हो तुम इस धरा के
इस धरा पर घर बनाओ।।
भूमि वँध्या हो तडपती
भाग्य अपना कोसती
व्योम जब नीरा छिटकता
कुक्षी में काँकर पोसती
फिर इसे वरदान देदो
चौक आकर के पुराओ।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (2-10-22} को "गाँधी जी का देश"(चर्चा-अंक-4570) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी।
Deleteमैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
सादर सस्नेह।
सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteसादर।
सुंदर सृजन
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका।
Deleteरचना सार्थक हुई।
सादर।
बहुत ही सुंदर सृजन।
ReplyDeleteगाँव की स्मृतियों में डुबो दिया आपने सोचती हूँ भूल गए वे सब या राह तक रहें होंगे आज भी।
मर्मस्पर्शी सृजन।
बहुत बहुत आभार आपका प्रिय अनिता।
Deleteआपकी टिप्पणी से रचना को नव ऊर्जा मिली।
सस्नेह।
ग्रामीण जीवन की सुंदरता और युवा पीढ़ी का पलायन दोनों को सुंदरता से पिरोया है आपने इस रचना में !
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका अनिता जी।
Deleteसार्थक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
सस्नेह।
आपके सृजन ने ननिहाल की स्मृतियों को जीवन्त कर दिया स्मृति पटल पर । अभिनव और हृदयस्पर्शी सृजन । सादर सस्नेह वन्दे कुसुम जी !
ReplyDeleteसही कहा मीना जी ये प्यारी सी स्मृतियाँ ही तो हमारे जीवन का सकारात्मक तत्व है।
Deleteहृदय से आभार आपका रचना में निहित भावों ने आपको प्रभावित किया।
सस्नेह।
हृदय विदारक बुलावा। शब्द-शब्द सिसक रहा है जैसे। आह....
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका अमृता जी।
Deleteरचना में निहित भावों के संवेगों से आप प्रभावित हुईं, लेखन सार्थक रहा।
सस्नेह।