कब ढ़लेगी रात गहरी
आपदा तांडव घिरा है
सो रहे सब ओर पहरी
दुर्दिनों का काल लम्बा
कब ढलेगी रात गहरी।
प्राण बस बच के रहे अब
योग इतना ही रहा क्यों
बैठ कर किसको बुलाते
बात हाथों से गई ज्यों
देव देवी मौन हैं सब
खूट खाली आज अहरी।।
वेदनाएँ फिर बढ़ी तो
फूट कर बहती रही सब
आप ही बस आप का है
मर चुके संवेद ही जब
आँधियों के प्रश्न पर फिर
यह धरा क्यों मौन ठहरी।।
झाड़ पर हैं शूल बाकी
पात सारे झर गये हैं
वास की क्यूँ बात कहते
दौर सारे ही नये हैं
बाग की धानी चुनर पर
रेत के फैलाव लहरे।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बहुत सुन्दर रचना !
ReplyDeleteहमारा मन विपरीत परिस्थियों में जल्द घबड़ा जाता है पर स्थाई तो कुछ भी नहीं होता, यह रात भी ढलेगी, सुबह जरूर आएगी !
जी बहुत सही कहा आपने उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया से लेखन ऊर्जावान हुआ।
Deleteसादर आभार।
हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति कुसुम जी ! मन की गहराई तक उतरते भाव..,अभिनव कृति ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका मीना जी आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 20 अक्टूबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
जी सादर आभार आपका मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
Deleteसादर।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 20 अक्टूबर 2022 को 'अम्मा झूठ बोलती हैं कि चंदा मेरा भाई है' (चर्चा अंक 4587 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 2:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए हृदय से आभार।
Deleteसादर।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 20 अक्टूबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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सादर।
Deleteबहुत ही सुन्दर सार्थक और भावपूर्ण रचना आपको दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteरचना को समर्थन मिला लेखन ऊर्जावान हुआ।
Deleteसस्नेह आभार
वेदनाएँ फिर बढ़ी तो
ReplyDeleteफूट कर बहती रही सब
आप ही बस आप का है
मर चुके संवेद ही जब
आँधियों के प्रश्न पर फिर
यह धरा क्यों मौन ठहरी।।
बहुत ही सुंदर , हृदयस्पर्शी सृजन
वाह!!!
बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ।
Deleteसस्नेह।
झाड़ पर हैं शूल बाकी
ReplyDeleteपात सारे झर गये हैं
वास की क्यूँ बात कहते
दौर सारे ही नये हैं
बाग की धानी चुनर पर
रेत के फैलाव लहरे।।///।
बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति प्रिय कुसुम बहन।जब विपरीत परिस्थितियों में उलझता है मन तो इसी तरह के भाव उमड़ते हैं। भावों को बहुत ही कौशल से समेटा है रचना में।सस्नेह बधाई स्वीकार करें ♥️🙏
आपकी विस्तृत उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई रेणु बहन, मोहक सारगर्भित प्रतिक्रिया।
Deleteसस्नेह आभार आपका।