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Tuesday, 18 October 2022

कब ढलेगी रात गहरी


 कब ढ़लेगी रात गहरी



आपदा तांडव घिरा है 

सो रहे सब ओर पहरी 

दुर्दिनों का काल लम्बा 

कब ढलेगी रात गहरी।


प्राण बस बच के रहे अब

योग इतना ही रहा क्यों 

बैठ कर किसको बुलाते 

बात हाथों से गई ज्यों 

देव देवी मौन हैं सब 

खूट खाली आज अहरी।।


वेदनाएँ फिर बढ़ी तो 

फूट कर बहती रही सब 

आप ही बस आप का है 

मर चुके संवेद ही जब 

आँधियों के प्रश्न पर फिर

यह धरा क्यों मौन ठहरी।।


झाड़ पर हैं शूल बाकी 

पात सारे झर गये हैं 

वास की क्यूँ बात कहते

दौर सारे ही नये हैं 

बाग की धानी चुनर पर 

रेत के फैलाव लहरे।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

16 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना !
    हमारा मन विपरीत परिस्थियों में जल्द घबड़ा जाता है पर स्थाई तो कुछ भी नहीं होता, यह रात भी ढलेगी, सुबह जरूर आएगी !

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    1. जी बहुत सही कहा आपने उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया से लेखन ऊर्जावान हुआ।
      सादर आभार।

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  2. हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति कुसुम जी ! मन की गहराई तक उतरते भाव..,अभिनव कृति ।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका मीना जी आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      सस्नेह।

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 20 अक्टूबर 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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    1. जी सादर आभार आपका मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
      सादर।

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  4. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 20 अक्टूबर 2022 को 'अम्मा झूठ बोलती हैं कि चंदा मेरा भाई है' (चर्चा अंक 4587 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 2:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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    Replies
    1. चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए हृदय से आभार।
      सादर।

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  5. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 20 अक्टूबर 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  6. बहुत ही सुन्दर सार्थक और भावपूर्ण रचना आपको दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं

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    1. रचना को समर्थन मिला लेखन ऊर्जावान हुआ।
      सस्नेह आभार ‌

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  7. वेदनाएँ फिर बढ़ी तो

    फूट कर बहती रही सब

    आप ही बस आप का है

    मर चुके संवेद ही जब

    आँधियों के प्रश्न पर फिर

    यह धरा क्यों मौन ठहरी।।
    बहुत ही सुंदर , हृदयस्पर्शी सृजन
    वाह!!!

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    1. बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ।
      सस्नेह।

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  8. झाड़ पर हैं शूल बाकी
    पात सारे झर गये हैं
    वास की क्यूँ बात कहते
    दौर सारे ही नये हैं
    बाग की धानी चुनर पर
    रेत के फैलाव लहरे।।///।
    बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति प्रिय कुसुम बहन।जब विपरीत परिस्थितियों में उलझता है मन तो इसी तरह के भाव उमड़ते हैं। भावों को बहुत ही कौशल से समेटा है रचना में।सस्नेह बधाई स्वीकार करें ♥️🙏

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    1. आपकी विस्तृत उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई रेणु बहन, मोहक सारगर्भित प्रतिक्रिया।
      सस्नेह आभार आपका।

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