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Tuesday, 11 October 2022

जीवन विरोधाभास


 जीवन विरोधाभास


सच सामने ठगता रहता

स्वप्न कभी फिर दहलाये।


ऐसी घातक चोट लगी थी 

अपनों ने जब घाव दिया

अन्तस् बहता नील लहू अब

शंभू बनकर गरल पिया

छाँव जलाये छाले उठते

धूप उन्हें फिर सहलाये।।


अदिठे से घाव हृदय पट पर

लेप सघन जो मांग रहे

मौन अधर थर-थर कंपति हैं

मूक दृगों की कौन कहे

ठोकर खाई जिस पत्थर से

बैठ वहाँ मन बहलाये।।


जाने कैसे रूप बदल कर

पाल वधिक हो जाता है

स्वार्थ जहाँ पर शीश उठाता

हाथ-हाथ को खाता है

पोल खुली है अब तो उनकी

कर्ण कभी जो कहलाये।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

27 comments:

  1. पोल खुली है अब तो उनकी

    कर्ण कभी जो कहलाये।।

    झूठ की पोल तो खुलती ही एक दिन....बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति कुसुम जी,सादर नमन

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    1. रचना को समर्थन देती प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ कामिनी जी।
      हृदय से आभार आपका।

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  2. जाने कैसे रूप बदल कर
    पाल वधिक हो जाता है
    स्वार्थ जहाँ पर शीश उठाता
    हाथ-हाथ को खाता है
    पोल खुली है अब तो उनकी
    कर्ण कभी जो कहलाये।।
    मार्मिक भावों के साथ कटु सत्य उकेरती हृदयस्पर्शी रचना । गहनता लिए मर्मस्पर्शी सृजन कुसुम जी ।
    सादर सस्नेह वन्दे !

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    1. रचना की विहंगम दृष्टि से परख, सुंदर प्रतिक्रिया से रचना चलायमान हो गई मीना जी हृदय से आभार आपका।

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  3. बहुत ही सुन्दर रचना

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    1. हृदय से आभार आपका सखी, प्रोत्साहन दिया आपने।
      सस्नेह।

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  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13.10.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4580 में दी जाएगी
    धन्यवाद
    दिलबाग

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    1. हृदय से आभार आपका, में चर्चा पर उपस्थित रहूंगी।
      सादर।

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  5. बहुत बढ़िया कहा 👌
    फिर से पढ़कर अच्छा लगा।
    सादर

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    1. सस्नेह आभार प्रिय अनिता आप का।

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  6. आपकी लिखी रचना सोमवार 17 अक्टूबर 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आदरणीया मैं पाँच लिंक पर उपस्थित रहूंगी।
      सादर सस्नेह।

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  7. इंसान के व्यवहार को परिभाषित करती बेहतरीन रचना ।

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    1. This comment has been removed by the author.

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    2. बहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी। आपकी टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
      सस्नेह।

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  8. Replies
    1. जी बहुत बहुत आभार आपका।
      सादर।

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  9. जाने कैसे रूप बदल कर

    पाल वधिक हो जाता है

    स्वार्थ जहाँ पर शीश उठाता

    हाथ-हाथ को खाता है

    पोल खुली है अब तो उनकी

    कर्ण कभी जो कहलाये।।
    बहुत सटीक एवं मार्मिक.... यथार्थ उकेरता बहुत ही लाजवाब सृजन
    अद्भुत बिम्ब विधान
    वाह!!!

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    1. आपकी विस्तृत उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई सुधा जी ।
      हृदय से आभार आपका।
      सस्नेह।

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  10. क्या बात है सटीक बिल्कुल ,बहु खूब कहा आपने दी।
    -------
    कभी चेहरा तो कभी आईना बदलता है
    सहूलियत से बात का मायना बदलता है
    अज़ब है ये खेल मतलबी सियासत का
    ख़ुदसरी में ज़ज़्बात का दायरा बदलता है।
    -----
    सस्नेह प्रणाम दी।

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    1. सुंदर काव्यात्मक प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ प्रिय श्वेता।
      सस्नेह आभार आपका।

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  11. दिल को छूती सुंदर रचना, कुसुम दी।

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    1. हृदय से आभार आपका ज्योति बहन मन प्रसन्न हुआ।
      सस्नेह।

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  12. बहुत बहुत आभार आपका रंजू जी।
    सस्नेह।

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  13. ठोकर खाई जिस पत्थर से

    बैठ वहाँ मन बहलाये।... बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  14. बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
    उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ।
    सादर।

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