प्रारब्ध या व्यवस्था
रेत की आँधी चले तो
कौन कर्मठ आ बुहारे
भाग्य का पलड़ा झुके तो
कौन बिगड़ी को सुधारे।।
पैर नंगे भूख दौड़े
पाँव में छाले पड़ें हैं
दैत्य कुछ भेरुंड खोटे
पंथ रोके से खड़ें हैं
घोर विपदा सिंधु गहरा
पार शिव ही अब उतारे।।
अन्न का टोटा सदा ही
हाथ में कौड़ी न धेला
अल्प हैं हर एक साधन
हाय ये जीवन दुहेला
अग्र खाई कूप पीछे
पार्श्व से दुर्दिन पुकारे।।
दीन के दाता बने जो
रोटियाँ निज स्वार्थ सेके
भूख का व्यापार करते
पुण्य का बस नाम लेके
राख होती मान्यता को
आज कोई क्यों दुलारे।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 5 अक्टूबर 2022 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम
हृदय से आभार आपका।
Deleteमैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
सादर सस्नेह।
वाह
ReplyDeleteसादर आभार आपका आदरणीय।
Deleteदीन के दाता बने जो
ReplyDeleteरोटियाँ निज स्वार्थ सेके
भूख का व्यापार करते
पुण्य का बस नाम लेके
कटु सत्य को उकेरती अप्रतिम रचना ।
हृदय से आभार आपका मीना जी आपकी सार्थक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह।
राख होती मान्यता को
ReplyDeleteआज कोई क्यों दुलारे
बहुत सुन्दर रचना
जी हृदय से आभार आपका।
Deleteआपकी प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
सादर।
ब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका।
सादर।
अंतिम पंक्ति...सारा रस उड़ेल गई कुसुम जी, महादेवी वर्मा के वाक्य विन्यास में देखी थी ऐसी तारतम्यता..अद्भुत ही कहा कि-
ReplyDelete''राख होती मान्यता को,आज कोई क्यों दुलारे।।'' संवेदना को भी पार कर जाती हुई रचना
आपकी भाव प्रवण प्रतिक्रिया सदा मेरे लेखन को सुधा तत्व से पूरित करती है अलकनंदा जी।
Deleteसस्नेह आभार आपका सुंदर मनभावन टिप्पणी के लिए।
सस्नेह।
बहुत ही उम्दा भावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका मनोज जी।
Deleteसादर।
हृदय से आभार आपका मनोज जी।
Deleteसादर।
वाह ! उत्तम सृजन...
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका।
Deleteरचना ऊर्जावान हुई ।
ब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका।
सादर।
यथार्थ पर अति भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी आपकी प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ।
Deleteसस्नेह।
वाह
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका सरला जी।
Deleteरचना प्राणवान हुई आपकी प्रतिक्रिया से।
ब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका।
सस्नेह।
दीन के दाता बने जो
ReplyDeleteरोटियाँ निज स्वार्थ सेके
भूख का व्यापार करते
पुण्य का बस नाम लेके
राख होती मान्यता को
आज कोई क्यों दुलारे।।
पुण्य के नाम से भूख का व्यापार
वाह!!!
बहुत सटीक यथार्थ उकेरता लाजवाब नवगीत ।
गहन विस्तृत प्रतिक्रिया से रचना को नये आयाम मिले सुधा जी बहुत बहुत आभार आपका।
ReplyDeleteसस्नेह।