Saturday, 1 October 2022

गाँव बुलाते हैं


 गाँव बुलाते हैं


खिलखिलाते झुरमटों में

लौट के कुछ गीत गाओ

है बसेरा यह तुम्हारा

छोड़ के इसको न जाओ।


रिक्त डेरा शून्य गलियाँ

पीपली संताप ओढ़े

खाट खुड़खुड़ रो रही है

इस बिछावन कौन पोढ़े

पाथ गाँवों के पुकारे 

हे पथिक अब लौट आओ।


माँग सी चौपाल सूनी

भोगती वैधव्य पीड़ा

वृद्ध जन आँसू बहाते

कौन ले कर्तव्य बीड़ा

पुत्र हो तुम इस धरा के

इस धरा पर घर बनाओ।।


भूमि वँध्या हो तडपती

भाग्य अपना कोसती

व्योम जब नीरा छिटकता

कुक्षी में काँकर पोसती

फिर इसे वरदान देदो

चौक आकर के पुराओ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

14 comments:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (2-10-22} को "गाँधी जी का देश"(चर्चा-अंक-4570) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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    1. बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी।
      मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
      सादर सस्नेह।

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    1. जी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
      सादर।

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  3. सुंदर सृजन

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    1. हृदय से आभार आपका।
      रचना सार्थक हुई।
      सादर।

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  4. बहुत ही सुंदर सृजन।
    गाँव की स्मृतियों में डुबो दिया आपने सोचती हूँ भूल गए वे सब या राह तक रहें होंगे आज भी।
    मर्मस्पर्शी सृजन।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका प्रिय अनिता।
      आपकी टिप्पणी से रचना को नव ऊर्जा मिली।
      सस्नेह।

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  5. ग्रामीण जीवन की सुंदरता और युवा पीढ़ी का पलायन दोनों को सुंदरता से पिरोया है आपने इस रचना में !

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    1. हृदय से आभार आपका अनिता जी।
      सार्थक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      सस्नेह।

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  6. आपके सृजन ने ननिहाल की स्मृतियों को जीवन्त कर दिया स्मृति पटल पर । अभिनव और हृदयस्पर्शी सृजन । सादर सस्नेह वन्दे कुसुम जी !

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    1. सही कहा मीना जी ये प्यारी सी स्मृतियाँ ही तो हमारे जीवन का सकारात्मक तत्व है।
      हृदय से आभार आपका रचना में निहित भावों ने आपको प्रभावित किया।
      सस्नेह।

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  7. हृदय विदारक बुलावा। शब्द-शब्द सिसक रहा है जैसे। आह....

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    1. हृदय से आभार आपका अमृता जी।
      रचना में निहित भावों के संवेगों से आप प्रभावित हुईं, लेखन सार्थक रहा।
      सस्नेह।

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