सृजन
बादलों पर सज उठे लो
रंग धनुषी छाप छपने।
झंझवातों में उलझता
पांख बांधे मन भटकता
बल लगा के तोड़ बंधन
मोह धागों में अटकता
क्लांत तन बिखरा पड़ा है
बुन रही है रात सपने।।
जब अधूरी आस टूटे
मन सुकोमल भी तड़पता
स्वप्न भीती चित्र जैसा
अधखुली पलकों मचलता
कामना उपधान डाले
लग रही प्रभु नाम जपने।
झांझरे मन की झनकती
मौन नीरव तोड़ती है
तार टूटे थे कभी वो
साधना से जोड़ती है
गीत लिखती लेखनी फिर
धुन पुकारे गीत अपने।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सुंदर।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका शिवम् जी ।।
Deleteरचना सार्थक हुई।
सिकंदर।
बहुत बढ़िया..
ReplyDeleteसादर प्रणाम
ढेर सा स्नेह आभार आपका।
Deleteस्नेहिल प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
सस्नेह।
वासन्ती परिवेश पर रचा सुन्दर नवगीत।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय,रचना को सार्थकता मिली और लेखन को नव उर्जा।
Deleteसादर
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह ! बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका गगन जी ।
Deleteरचना को सार्थकता मिली।
सादर।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (9-2-21) को "मिला कनिष्ठा अंगुली, होते हैं प्रस्ताव"(चर्चा अंक- 3972) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
ढेर सा स्नेह आभार आपका कामिनी जी।
Deleteरचना को चर्चा मंच पर रखने के लिए हृदय तल से आभार।
मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
सस्नेह।
वाह!कुसुम जी ,सुंदर सृजन ।
ReplyDeleteबहुत बहुत सा स्नेह आभार शुभा जी लेखन को उर्जा मिली आपकी प्रतिक्रिया से ।
Deleteढेर सा स्नेह।
मन मोहती, प्रकृति का मनोहारी चित्रण करती सुन्दर कृति..
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी।
Deleteउर्जा देती प्रतिक्रिया।
सस्नेह।
बहुत सुंदर। बहुत बढ़िया। आपको शुभकामनाएँ। सादर।
ReplyDeleteउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका ।
सादर ।
वाह!गज़ब का सृजन दी।
ReplyDeleteसादर
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सा आभार आपका।
Deleteरचना को सहज प्रवाह मिला।
सादर।
सस्नेह आभार अनिता आपका उत्साहवर्धन हुआ।
Deleteसस्नेह।
पांच लिंक पर रचना को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार।
ReplyDeleteमैं उपस्थित रहूंगी।
सादर।
सहज कल्पनाओं में उमड़ती रचना ... बहुत भावपूर्ण ...
ReplyDelete