प्रतीक्षा
हृदय मरूस्थल मृगतृष्णा सी,
भटके मन की हिरणी।
सूखी नदिया तीर पड़ी ज्यों
ठूंठ काठ की तरणी।।
कब तक राह निहारे किसकी,
सूरज डूबा जाता।
काया झँझर मन झंझावात,
हाथ कभी क्या आता।
अंतर दहकन दिखा न पाए
कृशानु तन की अरणी।।
रेशम धागा उलझ रखा है,
गांठ पड़ी है पक्की।
भँवर याद के चक्कर काटे
जैसे चलती चक्की।
जाने वाले जब लौटेंगे
तभी रुकेगी दरणी।।
सुधि वन की मृदु कोंपल कच्ची,
पोध सँभाल रखी है।
सूनी गीली साँझ में पीर ,
एक घनिष्ठ सखी है।।
दिन विहान औ रातें बीती,
वहीं रुकी अवतरणी ।।
कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"
हृदय मरूस्थल मृगतृष्णा सी,
भटके मन की हिरणी।
सूखी नदिया तीर पड़ी ज्यों
ठूंठ काठ की तरणी।।
कब तक राह निहारे किसकी,
सूरज डूबा जाता।
काया झँझर मन झंझावात,
हाथ कभी क्या आता।
अंतर दहकन दिखा न पाए
कृशानु तन की अरणी।।
रेशम धागा उलझ रखा है,
गांठ पड़ी है पक्की।
भँवर याद के चक्कर काटे
जैसे चलती चक्की।
जाने वाले जब लौटेंगे
तभी रुकेगी दरणी।।
सुधि वन की मृदु कोंपल कच्ची,
पोध सँभाल रखी है।
सूनी गीली साँझ में पीर ,
एक घनिष्ठ सखी है।।
दिन विहान औ रातें बीती,
वहीं रुकी अवतरणी ।।
कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १० अप्रैल २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteपाँच लिंक पर आना सदा मनहर रहता है।
मैं चर्चा पर अवश्य उपस्थित रहूंगी।
बहुत सुंदर रचना, कुसुम दी।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार ज्योति बहन आप लोगों का स्नेह मेरी लेखनी की ताकत है।
Deleteसूनी गीली साँझ में पीर ,
ReplyDeleteएक घनिष्ठ सखी है।।
दिन विहान औ रातें बीती,
वहीं रुकी अवतरणी ।।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति कुसुम जी ,सादर नमन आपको
बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी सुन्दर सार्थक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह।
Man ki peer jaise shbdon mein ubhar aai ...
ReplyDeletesundar rachna ...
जी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteआपकी मोहक टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
मनमोहक बिम्बों से सजा हृदयस्पर्शी नवगीत जिसमें दार्शनिकता के आयाम छलक पड़े हैं। लिखते रहिए। बधाई एवं शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteसादर नमन आदरणीया दीदी।
बहुत बहुत आभार आपका भाई रविन्द्र जी।
Deleteसुंदर विस्तृत टिप्पणी से रचना में नवप्राण संचार हुए।
सदा आपका प्रोत्साहन उर्जावान होता है लेखन के लिए।
बहुत सुन्दर गीत प्रस्तुति।
ReplyDeleteजी सादर आभार आपका आदरणीय।
Deleteरचना सार्थक हुई।
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteकई बिम्बों से गुजरा पढ़ते वक्त।
ReplyDeleteसुंदर रचना।
नई रचना - एक भी दुकां नहीं थोड़े से कर्जे के लिए
जी बहुत बहुत आभार आपका उर्जा वर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसादर।
खूबसूरत प्रस्तुति ! बहुत सुंदर आदरणीया ।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय ।
Deleteआपकी टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
सादर।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteप्रतीक्षा को नए अर्थों में परिभाषित करता बहुत मनमोहक नवगीत आदरणीया कुसुम दीदी.भावों के साथ बिम्ब बहुत सुंदर हैं. आपके नवगीत हमारा मार्गदर्शन करते हैं.
ReplyDeleteसादर
बहुत सा स्नेह आभार आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना में निहित भाव मुखरित हुए ।
Deleteसस्नेह।
ReplyDeleteरेशम धागा उलझ रखा है,
गांठ पड़ी है पक्की।
भँवर याद के चक्कर काटे
जैसे चलती चक्की।
वाह!!!!
बहुत ही लाजवाब नवगीत
अद्भुत शब्द संयोंजन
बहुत बहुत आभार सुधाजी आपकी मोहक टिप्पणी से उत्साह वर्धन हुआ ,रचना को प्रवाह मिला।
Deleteसस्नेह।
वाह!लाजवाब सृजन कुसुम जी ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका शुभा जी आप से सदा उत्साह मिलता है ।
Deleteसस्नेह।
सुधि वन की मृदु कोंपल कच्ची,
ReplyDeleteपोध सँभाल रखी है।
सूनी गीली साँझ में पीर ,
एक घनिष्ठ सखी है।।
रचनाओं में आप बिम्बों को सुंदर तरीके से पिरोती हैं जो मनभावन बन जाता है। बधाई व शुभकामनाएँ आदरणीया कुसुम जी।
बहुत-बहुत आभार पुरुषोत्तम जी ,आपकी प्रतिक्रिया ने रचना का और लेखन दोनों का मान बढ़ाया ।
ReplyDeleteढेर सा आभार पुनः सदा यूं ही उत्साह वर्धन करते रहिएगा।
बेहतरीन रचना सखी 👌
ReplyDeleteप्रभावी अभिव्यक्ति ...बधाई आपको
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19 -4 -2020 ) को शब्द-सृजन-१७ " मरुस्थल " (चर्चा अंक-3676) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
सखी सुंदर सृजन
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