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Thursday, 30 April 2020

ज्ञान की आशा

ज्ञान की आशा

कभी न मांगू भिक्षा बाबा ,
हाथ उठा के काँसा।
पढ़ना साहब बनना मुझको,
मैं न बजाऊं ताशा ।

तन सूखा है भीगी आँखे ,
चिथड़े  लिपटी काया ।
पेट पीठ सब एक हो रहे ,
अहो भाग्य की माया ।
दुर्दिन की छाई है बदली ,
समय फेंकता पासा ।।

ऊपर सर के टूटी टपरी ,
भूख पसरती द्वारे ।
फिर भी मन में है दृढ़ इच्छा,
निज भविष्य संवारे।
कठिन राह की तोड़ वर्जना,
जगी ज्ञान की आशा ।।

थाम हाथ ली पटिया खड़िया ,
खूब लिखूं अब लिखना ।
बड़ी बनूंगी जब अधिकारी ,
मुझको दृढ़ है दिखना ।
बाबा कुछ दिन मुझे सँभालों ।
फिर जाऊंगी नासा ।।

      कुसुम कोठारी।

4 comments:

  1. कभी न मांगू भिक्षा बाबा ,
    हाथ उठा के काँसा।
    पढ़ना साहब बनना मुझको,
    मैं न बजाऊं ताशा ।
    बहुत सुंदर, अभिव्यक्ति कुसुम दी।

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  2. बहुत सुंदर रचना सखी

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