धानी धरा
भाग बदले टहनियों के
झाँकती कोंपल लचीली
दूब फूटी मेदिनी से
तन खड़ी हैं वो गहीली।
शीत का उजड़ा घरौंदा
धूप मध्यम है बसंती
खग विहग लौटे प्रवासित
जल मुकुर सरिता हसंती
फूल खिल उस डग उठे अब
राह कल तक थी कटीली।।
रंग धानी हो रही है
भूधरा की देह श्यामल
पौध लजकाणी झुकी सी
कोंपले नव मंजु झिलमिल
लाजमय लें ओढ़नी वो
पीत रंगों की सजीली।।
खिल उठा तारुण्य हर दिशि
झूमता मौसम पुकारे
राग गाती है समीरा
रंग विधि के वाह न्यारे
तन मुदित मन भा रही है
आज बासंती रसीली।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
प्रकृति प्रेम का सुंदर गीत
ReplyDeleteवाह
हृदय से आभार आपका आदरणीय।
Deleteसादर।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-2-22) को "प्यार मैं ही, मैं करूं"(चर्चा अंक 4348)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
हृदय से आभार आपका कामिनी जी चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए।
Deleteसस्नेह आभार।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका ।
Deleteसादर।
बसंती मौसम की महक लिए सुंदर रचना
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए।
Deleteसस्नेह।
वाह! मन मुग्ध करती बहुत ही खूबसूरत रचना!
ReplyDeleteआपको पसंद आई लेखन सार्थक हुआ मनीषा जी ।
Deleteसस्नेह आभार आपका।
बहुत सुंदर!!
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका।
Deleteसादर।
प्रकृति खेलती है आपकी कलम में ...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत से शब्दों का चयन होता है आपना ... लाजवाब ...
अभिभूत हुई आपकी अनमोल प्रतिक्रिया से।
Deleteहृदय से आभार आपका।
सादर।
खिल उठा तारुण्य हर दिशि
ReplyDeleteझूमता मौसम पुकारे
राग गाती है समीरा
रंग विधि के वाह न्यारे
तन मुदित मन भा रही है
आज बासंती रसीली।।
वाह दिव्य छटा बिखेरती उत्कृष्ट रचना ।
मन खुश हुआ आपकी सुंदर टिप्पणी से
Deleteहृदय से आभार आपका जिज्ञासा जी।
सस्नेह।
हृदय से आभार आपका आदरणीय।
ReplyDeleteसादर।