Sunday, 20 February 2022

धानी धरा


 धानी धरा


भाग बदले टहनियों के

झाँकती कोंपल लचीली

दूब फूटी मेदिनी से

तन खड़ी हैं वो गहीली।


शीत का उजड़ा घरौंदा

धूप मध्यम है बसंती

खग विहग लौटे प्रवासित

जल मुकुर सरिता हसंती

फूल खिल उस डग उठे अब

राह  कल तक थी कटीली।।


रंग धानी हो रही है

भूधरा की देह श्यामल

पौध लजकाणी झुकी सी

कोंपले नव मंजु झिलमिल

लाजमय लें ओढ़नी वो

पीत रंगों की सजीली।।


खिल उठा तारुण्य हर दिशि

झूमता मौसम पुकारे

राग गाती है समीरा

रंग विधि के वाह न्यारे

तन मुदित मन भा रही है

आज बासंती रसीली।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

17 comments:

  1. प्रकृति प्रेम का सुंदर गीत
    वाह

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    1. हृदय से आभार आपका आदरणीय।
      सादर।

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-2-22) को "प्यार मैं ही, मैं करूं"(चर्चा अंक 4348)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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    1. हृदय से आभार आपका कामिनी जी चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए।
      सस्नेह आभार।

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    1. हृदय से आभार आपका ।
      सादर।

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  4. बसंती मौसम की महक लिए सुंदर रचना

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    1. जी हृदय से आभार आपका उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए।
      सस्नेह।

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  5. वाह! मन मुग्ध करती बहुत ही खूबसूरत रचना!

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    1. आपको पसंद आई लेखन सार्थक हुआ मनीषा जी ।
      सस्नेह आभार आपका।

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    1. हृदय से आभार आपका।
      सादर।

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  7. प्रकृति खेलती है आपकी कलम में ...
    बहुत खूबसूरत से शब्दों का चयन होता है आपना ... लाजवाब ...

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    1. अभिभूत हुई आपकी अनमोल प्रतिक्रिया से।
      हृदय से आभार आपका।
      सादर।

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  8. खिल उठा तारुण्य हर दिशि

    झूमता मौसम पुकारे

    राग गाती है समीरा

    रंग विधि के वाह न्यारे

    तन मुदित मन भा रही है

    आज बासंती रसीली।।

    वाह दिव्य छटा बिखेरती उत्कृष्ट रचना ।

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    1. मन खुश हुआ आपकी सुंदर टिप्पणी से
      हृदय से आभार आपका जिज्ञासा जी।
      सस्नेह।

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  9. हृदय से आभार आपका आदरणीय।
    सादर।

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